Thursday, January 22, 2015

द ओल्‍ड फोर्ट : भूतों की एक गाथा, भाग-2


द ओल्‍ड फोर्ट : भूतों की एक गाथा

भाग-2
शेष से आगे....

दिन के ग्यारह बज रहे थे।
दिल्ली के आरपी मेडिकल कॉलेज की पार्किंग में एक चमचमाती लाल सेन्ट्रो के ब्रेक जाम हुए।
ड्राइविंग डोर खोलकर जो शख्स बाहर निकला उसके बदन पर कीमती कुर्ता-पजामा कार की ही तरह चमक छोड़ रहा था।
जूते भी अपनी चमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे।
दरवाजा लॉक करने के बाद वह इमारत परिसर की तरफ बढ़ा।
उसकी उम्र पचपन वर्ष के आसपास होनी चाहिए। देखने मात्र से वह जमींदार नजर आता था। उसके हाथों की कई सारी अंगुलियों में गोल्ड रिंग थी जिनमें कीमती पत्थर जड़े हुए थे जो निःसंदेह उसने विपत्तियों से निपटने के लिए ही जड़वाए होंगे, इससे उसकी धर्म के प्रति आस्था और आस्था के प्रति उसका समर्पण तथा समर्पण के प्रति उसका जुनून प्रदर्शित होता था।
चेहरे पर सुर्खी के साथ कठोरता की मोटी झुर्रियां थीं जो अहले नजर के लिए कई रहस्यों से ओचक पर्दा उठाती थीं।
आज तो वह खुद में मगन था। खुशी भरे कदमों से इमारत परिसर की तरफ बढ़ा जा रहा था जैसे कोई प्रेमार्थी सपनों के हिंडोलों पर अपने सनम की तरफ खिंचा जा रहा हो।
खुश हो भी क्यों न?
इस मेडिकल कॉलेज में वो डाक्टर भगनानी से मिलने जा रहा था।
डाक्टर भगनानी से मिलने के लिए उसने क्या जतन नहीं किये थे?
कितनी दौड़-भाग की थी- उफ्फ।
अगर डमरू लेकर खड़ा हो जाता और भगवान शिव का याद करके बजाता तो बहुत पहले वे नमूदार हो जाते और वे सारे वरदान उसे दे जाते जो उसके अधिकार क्षेत्र में आते।
मगर डाक्टर भगनानी!
जैसे कोई दुर्लभ वस्तु!
मानो दूर की कौड़ी!
अप्वाइंटमेंट लेना तो बड़ी टेड़ी खीर साबित हुआ मगर चौधरी सुखबीर सिंह ने भी ठान ही लिया था। सारी जिन्दगी का एकमात्र टारगेट था- डाक्टर भगनानी से मिलना।
मिलना तो संभव हुआ लेकिन सुखबीर को ये कटु अनुभव भलीभांति हो गया कि किसी सेलिब्रेटी से मुलाकात करने में कितने पापड़ बेलना पड़ते हैं।
बेले थे सारे पापड़ सुखबीर ने।
आज डाक्टर भगनानी कोई मामूली हस्ती नहीं थे। एक मेडिकल कॉलेज के मनोवैज्ञानिक मात्र नहीं थे बल्कि अपने कुछ शोधपत्रों की बदौलत वो सारी दुनिया मंे छा गए थे।
मनोविज्ञान के सम्बन्ध में उन्होंने ऐसे सूत्र दुनिया को दिए थे कि दुनिया चमत्कृत रह गयी थी। उन अकाट्य तर्कों के समक्ष सारी दुनिया एक स्वर मंे नतमस्तक थी। जिन मनोरोगों को आज तक लाइलाज या फिर भूत-प्रेत का चक्कर मान लिया गया था। डाक्टर भगनानी ने उसके सफल फार्मूले दिये और अंततः ये सिद्ध कर दिया कि मनोरोगों के सम्बंध में धार्मिक क्रियाकलाप झूठ और मनगढ़न्त की एक किस्सागोई है। वहीं उन्होंने ये भी क्लियर कर दिया कि मनोरोगों को लेकर अभी तक मनोविज्ञान सिर्फ भ्रांतियों, कयासों और मिथकों से भरा हुआ है। वो सच्चाई से इतना ही दूर है जितना अंधकार प्रकाश से होता है और प्रकाश के आ जाने पर अंधेरे के साये गायब हो जाते हैं। ठीक इसी तरह मेरे फार्मूलों के बाद अब मनोविज्ञान के बारे मंे अध्याय पुनः गठित किये जाएँगे और इनके प्रयोग के अब नये और प्रथम अनुभव हासिल किये जाएँगे।’
भूतों के सम्बन्ध में डाक्टर भगनानी ने कहा- ‘‘दुनिया में भूत प्रेत नहीं होते हैं- ब्रह्माण्ड में कोई ऐसा तन्त्र नहीं है जो भूतों पर काम करता हो, ये एक कपोलकलपित विषय है, चूंकि मनुष्य असीम मस्तिष्क का स्वामी है, कदाचित वो सोच सकता है इसलिए वो सोचता है। अतः एव भूत प्रेत का संसार वजूद में आ गया है। मानव मस्तिष्क से हटकर इसका कहीं कोई  वजूद नहीं है।’’
भगनानी ने आगे कहा- ‘‘ आपको बहुत सारे लोग मिल जाएँगे जो भूतों के साक्षात्कार का उनसे लड़ने का दावा करते होंगे- आप सोचते होंगे कि मैं उनको झूठा और मक्कार समझता हूं? नहीं! मैं उनको झूठा और मक्कार कतई नहीं समझता- वो बिल्कुल सच्चे होते हैं- जैसे कोई अबोध बालक!
दरअसल जैसा उन्हें वातावरण मिला वो उसी को आगे बढ़ा रहे होते हैं। यहाँ अधिकतम व्यक्ति अपनी परम्पराओं के प्रति जड़वत होते हैं, वे इससे हटकर सोच ही नहीं सकते, उनकी इन्द्रिया सहयोग नहीं करती है, तो वे उसी को सच्चाई मान लेते हैं जो उनकी परम्पराओं के दायरे में आता है- भूत भी यहाँ इन्सान की परम्पराओं के दायरे में आता है, इसीलिए लोग भूत पर यकीन करते हैं, तभी तो उन्हें आहट और खामोशी में भूत के दर्शन और उनके साक्षात्कार होते हैं।’’
दरअसल ये सब उनके अपने दिमाग में चल रहा होता है। यानि ये उनका अंधविश्वास होता है।’’
उपरोक्त फ्लासफियों के अन्तर्गत डाक्टर भगनानी को दुनियाभर में समर्थन मिला। देखते-देखते वे एक मेडिकल कॉलेज के मनोवैज्ञानिक से एक विश्व विख्यात मनोवैज्ञानिक बनकर उभरे। उनकी कीर्ति विश्वभर में अपना परचम लहराने लगी।
गुड़गांव के एक बड़े किसान चौधरी सुखवीर सिंह ने जब उनकी सुर्खियों को मीडिया में देखा तो वह उनसे मिलने को लालायित हो उठा क्योंकि फिलवक्त वह एक भूतों की जबर्दस्त प्रताड़ना का शिकार था और हर हाल में इससे मुक्ति पाना चाहता था। वह ओल्ड फोर्ट का स्वामी था।

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चौधरी सुखवीर सिंह उस इमारत के शानदार रिसेप्शन में प्रविष्ट होने के बाद काउंटर ब्वाय के पास पहुंचा।
मुखातिब हुआ- ‘‘डाक्टर भगनानी से मिलना है।’’
ब्वाय ने गर्दन उठाकर उसे देखा। वह उसे झट से पहचान गया, चौधरी सुखबीर सिंह को इस कॉलेज का लगभग सारा स्टाफ ही जान गया था। क्योंकि जितने चक्कर चौधरी ने लगाए थे उससे चौधरी को सभी जान गए थे।
बल्कि चौधरी स्टाफ के बीच कभी-कभी चर्चा का विषय भी बन जाता था।
स्टाफ मनन करता था- आखिर चौधरी की ऐसी कौन सी समस्या है जो वो भगनानी से ही दूर होगी- पेशेन्ट देखना तो उन्होंने बिल्कुल बन्द कर दिये थे। इस काम के लिए विभाग में कई योग्य डाक्टर थे। भगनानी के पास इतना वक्त ही कहाँ था जो वे पेशेन्ट देखते। दुनियाभर में उनके व्याख्यान चलते रहते थे।
आज मुद्दतों बाद उनका अपनी चेअर पर बैठना मुमकिन हो सका था।
स्टाफ के कई लोगों को चौधरी सिरफिरा नजर आता था। आखिर इस जिद का क्या कारण हुआ कि मैं समस्या डाक्टर भगनानी को ही बताऊंगा और उनसे मिलना मेरे लिए बहुत जरूरी है।
काउंटर ब्वाय ने सशंकित दृष्टि से चौधरी की तरफ देखा। आज फिर परेशान करने आ गया।
ब्वाय उसे हड़काता या कुछ और कहता चौधरी ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और पलटकर ब्वाय के आगे कर दिया।
ब्वाय को चौंक जाना पड़ा। क्योंकि अप्वाइंटमेंट था और जो समय अंकित था वो अब से दो मिनट बाद शुरू हो जाता था।
ब्वाय मुस्कुरा दिया- ‘‘आखिर तुमने अप्वाइंटमेंट ले ही लिया।’’
चौधरी कुछ नहीं बोला। न उसकी भंगिमाओं में कोई बदलाव आया।
ब्वाय अपने स्थान से उठा और काउंटर से बाहर आकर एक तरफ को चलता हुआ बोला- ‘‘मेरे साथ आओ।’’
चौधरी पीछे चल दिया।
कोई एक मिनट चलने के बाद ब्वाय जिस गेट पर स्थिर हुआ उसके माथे पर डाक्टर वाई भगनानी का नाम उभरा हुआ था।
चौधरी को वहीं खड़े रहने का इशारा करके ब्वाय भीतर चला गया। कार्ड साथ ले गया था।
चौधरी प्रतीक्षारत वहाँ खड़ा रहा। वो भगनानी के लिखे हुए नाम को निहार रहा था मानो इस मुलाकात के लिए की गयी अथक मेहनत के एक एक पल को मन में संजो रहा हो।
वो ज्यादा देर नहीं सोच पाया था। तब तक गेट खुला। ब्वाय ने भीतर जाने का इशारा कर दिया। ऐसा करके ब्वाय अपने स्थान की तरफ बढ़ गया।
भीतर प्रविष्ट होने से पहले न जाने क्यों चौधरी का दिल धड़का। चेहरे पर थोड़ी सी खुश्की सी उतरी।
अपने कुर्ते को फटकारते हुए उसने दरवाजा खोला।

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डाक्टर भगनानी!
पतली दुबली देह!
उम्र आगुन्तक के बराबर। चेहरा लम्बूतरा, क्लीन शेव्ड, आंखों पर पारदर्शी शीशो का चश्मा।
भीतर प्रविष्ट होते ही चौधरी ने दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन किया। प्रत्युत्तर में भगनानी ने जीवंत मुस्कान के साथ स्वागत किया और सामने पढ़ी चेयर पर बैठने के इशारे के साथ बोले- ‘‘प्लीज, सिट डाऊन।’’
थेंक्यू के उद्घोष के साथ चौधरी ने कुर्सी ग्रहण की।
डोर क्लोजर पर झूलता दरवाजा अपने यथास्थान फिक्स हो चुका था।
उसके बैठते ही भगनानी बोले- ‘‘माफ करना- अप्वाइंटमेंट के लिए आपको लम्बी दौड़-भाग करना पड़ी- एक्च्युअली हमने पेशेन्ट देखना बंद कर दिये हैं- आपको पता होगा हमें दुनियाभर में दौड़ना पड़ रहा है, इसलिए आपसे मीटिंग के लिए समय नहीं निकाल पा रहे थे- आई एम वैरी सारी।’’
चौधरी आभार प्रकट करता हुआ बोला- ‘‘आपसे मुलाकात हो गयी मैं धन्य हो गया- मैं बहुत परेशान था- सच अगर आपसे नहीं मिल पाता तो शायद... मैं बरबाद था...।’’
बहुत बारीक मुस्कान के साथ भगनानी ने चौधरी के इन शब्दों को ग्रहण किया। बोले-‘‘कहिए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’’
चौधरी ने भूमिका बांधने के लिए एक गहरी सांस खारिज की और मन-मस्तिष्क को एक बिन्दु पर रखे बोला- ‘‘सर जी, मैं एक भूतों की समस्या से बुरी तरह त्रस्त हूं। भूतों ने मेरी जिंदगी हराम कर दी है। आपके अलावा दुनिया में कोई मेरी मदद नहीं कर सकता।’’
‘‘क्या समस्या है?’’
एक क्षण के विराम के बाद तथा पुनः गहरी सांस भरने के बाद चौधरी बोला- ‘‘मैं गुड़गांव के निकट बहरामपुर गांव का रहने वाला हूं। मेरा गांव चारों तरफ से ऊंचे-ऊंचे फ्लेट टावर से घिर गया है, बहरामपुर के निकट ही मेरा एक लगभग दो सौ हेक्टेयर का लम्बा चौड़ा भूखण्ड है। उस पर कोई भी बड़े से बड़ा ड्रीम प्रोजेक्ट तैयार हो सकता है। एन्ड ऐसे मौके पर है कि किसी भी बिल्डर के मुंह में पानी आ जाता है। तब भी मेरा वो भूखंड कोई कोढ़ियों के भाव खरीदने को राजी नहीं है।’’
‘‘क्यों?’’ भगनानी ने दिलचस्पी के साथ पूछा।
दिलचस्पी के गहरे भाव उनके चेहरे पर उभर आये थे। पुनः एक क्षण के विराम के बाद चौधरी बोला- ‘‘उस भूखण्ड के बीच में एक पुरानी हवेली है- क्या है कि मेरे पूर्वज राजे महाराजे थे, उस वक्त ये भूखण्ड घोर जंगल में पढ़ता था। शिकार के शौक के चलते एन्ड दूसरे कारणों के चलते इस हवेली का निर्माण कराया गया था- पता नहीं कैसे कई सौ वर्षों से वो हवेली भूतों को लेकर बदनाम है, इतनी ज्यादा बदनाम है कि आसपास के सारे इलाके में लोग उन भूतों से डरते और कांपते है। हजारों लोककथाएं उससे जुड़ी हुई हैं- लोगों ने साक्षात भूतों का तांडव देखा है, उनका खूनी रिवेंज तो प्रसिद्ध रहा है- लोग दिन तक में उस हवेली के पास जाने से कतराते हैं।’’ लम्बी बात कहकर चौधरी चुप हुआ।
भगनानी देर तक उसके चेहरे को रीड करते रहे।
वे भूतों की कहानी से चौधरीके चेहरे के भाव का तारतम्य तलाश रहे थे।
चौधरी के चुप होने के कुछ देर बाद भगनानी अपने ठहरे हुए स्वर में बोले- ‘‘ये एक बड़ा हैरानी का विषय है कि जिस चीज का वास्तविक रूप से कोई वजूद ही नहीं है। उससे हजारों लोककथाएं जुड़ी हुई हैं- ये अंधविश्वास की पराकाष्ठा हुई। पिछली सदियों ने हमें थोक के हिसाब से अंधविश्वास दिया है। चूंकि विज्ञान के आने के बाद अंधविश्वास पर प्रहार हुए हैं और लोग जागरूक भी हुए हैं। बावजूद उसके आपकी समस्या बताती है कि अभी बहुत काम होना बाकी है। बाई दी वे आपको मेन समस्या कहाँ पर है, क्या आप चाहते नहीं कि उस हवेली मंे भूत रहे हैं या फिर वे भूत आपके घर तक आ रहे हैं?’’
चौधरी बोला- ‘‘मैं उस भूखण्ड को बेचना चाहता हूं जो करीब चार पांच अरब रुपए का बिक जाएगा लेकिन भूतों की वजह से कोई उसे कोढ़ियों के भाव लेने को राजी नहीं है।’’
‘‘कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति आपको नहीं मिल रहा जो भूतों पर यकीन न करता हो?’’ भगनानी ने पूछा।
फिर चौधरी ने एक गहरी सांस ली और कहा- ‘‘कम से कम पचास बिल्डर तो मुझसे डीलिंग तोड़ चुके हैं। एक्चुअली...। ‘‘चौधरी ने पहलू बदला और अधिक जोश के साथ बोला- ‘‘वो भूखण्ड ऐसे मौके पर है कि मानो हर बिल्डर उसे खरीदना चाहता है, बिल्डर मेरे पास आते रहते हैं, रेट तय हो जाते हैं, सायनिंग अमाउंट भी हो जाता है लेकिन इसी के साथ भूत उस बिल्डर को आतंकित करना शुरू कर देते हैं, इतना आतंकित कर देते हैं कि बिल्डर घबराकर जब तक डीलिंग तोड़ न दे तब तक उसे चैन नहीं मिलता- दर्जनों बिल्डर्स के साथ ऐसा हो चुका है।’’
भगनानी पहले से अधिक हैरान हो गए।
खण्डहर से हजारों लोककथाएं जुड़ी होने पर उन्हें इतनी हैरानी नहीं हुई थी जितनी बिल्डर्स को भूतों द्वारा आतंकित की बात सुनकर हैरानी हो गई।
उन्होंने सीधा सा प्रश्न चौधरी से किया- ‘‘क्या तुमने कभी वहाँ भूत देखे हैं। सच बोलना?’’
वो चुप्पी सी साध गया। मनन करने लगा कि मैंने देखे हैं या नहीं देखे हैं?
‘‘बताओ ऽऽ- तुम्हारा भूखण्ड है, तुम्हारा तो आना-जाना वहाँ होता होगा। अपनी इतनी उम्र में क्या तुमने वहाँ एक बार भी भूत देखा?’’
‘‘सर...।’’ जैसे उसे बोलने को शब्द मिल गए थे। ‘‘हमारा परिवार शुरू से गुरुओं की शरण में है इसलिए हम कई सारे अनिष्ट और विपत्तियों से बचे रहते हैं।’’
‘‘सीधे सवाल का सीधा जवाब दो, क्या तुमने कभी भूतों को देखा?’’
जैसे उसने भगनानी के प्रशर तले कह दिया- ‘‘न, कभी नहीं।’’
भगनानी शब्दों से तो संतुष्ट हुए लेकिन भाव से कतई संतुष्ट नहीं हुए।
भगनानी इस प्रश्न को छोड़कर दूसरे मुद्दे पर आये। ‘‘तुम गुरुओं की शरण में हो?’’
‘‘जी।’’
‘‘तो इस समस्या का समाधान क्या तुम्हारे गुरुओं के पास नहीं है?’’
चौधरी ने इंकार में गर्दन हिला दी।
‘‘ये तो और भी हैरानी की बात हो गयी- इन गुरुओं ने भूतों को पैदा कर दिया लेकिन नाश नहीं कर पा रहे हैं। ऐसा क्यों?’’
‘‘दरअसल सर- वे भूत बहुत खतरनाक हैं, खुद को छेड़ने वाले को वे जिंदा नहीं छोड़ते हैं, मैं बड़े-बड़े तांत्रिक को लेकर वहाँ गया लेकिन वे खण्डहर में जाने ऐसा क्या देखते हैं कि वहाँ से भाग छूटते हैं।’’
‘‘किसी बड़े घमण्ड वाले तांत्रिक को लेकर जाओ, दरअसल क्या है कि भूतों का निदान सिर्फ दो लोगों के पास होता है। एक हमारे पास जो भूत को मानते ही नहीं हैं, या फिर ऐसे तांत्रिक के पास जो भूतों के खिलाफ अकाट्य मंत्रो का अहम रखता हो।’’
‘‘मैं सबमें घूम फिर लिया हूं सर- हर दर पर मैंने टक्करें मार लीं हैं, सबसे निराश होकर आपके पास आया हूं।’’
‘‘हम क्या कर सकते हैं- न तो उस भूखण्ड को खरीद सकते हैं... कहीं ऐसा तो नहीं कि बिल्डर्स किसी और वजह से तुमसे डीलिंग तोड़ लेते हों?’’
‘‘और क्या वजह हो सकती है?’’
‘‘वाई दी वे तुम्हारी शर्तें आऊट आफ कन्ट्रोल हों?’’ ‘‘मेरी तो कोई शर्त ही नहीं होती सर, जो भी बात होती है वो पहले डिक्लेयर हो जाती है, उसकी वजह से डीलिंग नहीं टूट सकती।’’
‘‘क्या तुम अभी मेरी किसी बिल्डर से बात करा सकते हो?’’
‘‘क्यों नहीं?’’
कहने के पश्चात चौधरी ने मोबाइल जेब से निकाला और फोन डायरी में जाकर एक नम्बर पर कालिंग कर दी।
दूसरी तरफ घण्टी जाने लगी थी।

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शेष आगे...

Tuesday, January 20, 2015

द ओल्ड फोर्ट: भूतों की एक गाथा

द ओल्ड फोर्ट:
भूतों की एक गाथा



गांव बहरामपुर!
रात के ग्यारह बज रहे थे।
बहरामपुर गांव में शार्टकट से घुसने वाले कच्चे रास्ते पर एक बाइक हिचकोले खाते आगे बढ़ रही थी।
बाइक सवार एक युवक था जिस पर फिलहाल भय प्रचुर मात्रा में सवार था। वह अन्दर से बहुत डरा सहमा था, अपने उस डर को वह लगातार मेन्टेन करने की कोशिश कर रहाथा। कुछ हद तक वह सफल भी था क्योंकि बेसिकली या फिर कहो कि दिन के उजाले में वह भूतों को नहीं मानता था। ये विषय उसे कपोल कल्पित सा नजर आता था। या फिर कहो कि वह भूत का विरोध करने वाले खेमे की तरफ अपना झुकाव रखता था।
लेकिन रात के अंधेरे से सामान्यता डरता भी था। और फिलहाल तो वह बाइक लिए ऐसे रास्ते से गुजर रहा था जिससे रात तो रात लोग दिन तक में गुजरना पसन्द नहीं करते थे। फिर भी एक बार को दिन में गुजरा जा सकता था। कदाचित लोग दिन में गुजर जाया करते थे लेकिन रात...
ऐसा तो सोचना भी अनर्थ था।
इस कच्चे रास्ते पर एक बहुत पुराना किला पड़ता था, जो भूतों को लेकर ऐसे ही बदनाम था जैसे ताजमहल अपनी सुंदरता को लेकर प्रसिद्ध है। दूर दूर तक।
कम से कम किले के पचास-पचास कोस दूर तक तो लोग यहाँ से रात को न गुजरने की कसमें खाते थे-
क्योंकि इस किले के भूतों का खूनी संहार प्रसिद्ध रहा है। मानो रात की नीरवता भंग करने वाला इन भूतों को स्वीकार्य ही न हो। ये चाहते ही नहीं थे कि कोई यहाँ से रात में गुजर कर अपने पदचापों से इन भूतों की तन्द्रा भंग कर दे और इनकी भृकुटी तन जाये।
एक बार भूतों की भृकुटी तन गयी, तो इसका जिम्मेदार व्यक्ति जीवित नहीं बच सकता।
बाइक की धुक-धुक बहुत दूर तक सन्नाटे को भंग करती चली जा रही थी। कहा जा सकता है कि इस वातावरण में ये हैरतनाक मामला दर्ज हो रहा था क्योंकि यहाँ इतना कलेजा किसी का नहीं हो सकता जो इतनी रात गये... रात के ग्यारह बजे... ओल्ड फोर्ट के सामने से कोई बाइक द्वारा निकलकर जाये...?
उफ।
ये काम या तो कोई अपरिचित कर सकता है, अथवा कोई अलग दिमाग का आदमी।
कच्चे रास्ते पर धुक-धुक करती बाइक आगे बढ़ रही थी। किला करीब आता जा रहा था।
दैत्याकार किला।
बहुत लम्बा चौड़ा।
युवक खुद को मेन्टेन कर रहा था। खुद को समझा रहा था कि भूत-प्रेत नहीं होते हैं, हालांकि वह इस रास्ते पर आने के अपने फैसले को कोस भी रहा था। शार्टकट के लालच में वह इस रास्ते पर आ गया था। अब तक ऐन किले के पास पहुंच गया तो वह अपने उस फैसले को कोसने भी लगा क्योंकि डर इतना ज्यादा लग रहा था कि उसे मेन्टेन करना मुश्किल हो रहा था।
फिर...
बीच किले के सामने...
यकायक...
उसकी बाइक बंद हो गयी।
स्वतः...
उसके पसीने छूट गये। हलक खुश्क हो गया। दिल धाड़-धाड़ बजने लगा।
गलती से उसने न जाने क्यों फोर्ट की तरफ देख लिया था।
और इसी के साथ उसके हलक से हृदयविदारक चीख उबली।
वह भागा।
बाइक छोड़कर सरपट गांव की तरफ भागा।
मगर ज्यादा दूर वह नहीं भाग पाया था। एक पत्थर से ठोकर खाकर वह बुरी तरह गिरा।
ये उसकी दूसरी उबलने वाली चीख थी।
और इसी के साथ वह शान्त होता चला गया।
वातावरण में तेज सरसराहट कीआवाज उभरने लगी थी।

000

शेष बाकी.....