जासूसी राइटर समाजिक कहानियां नहीं लिखते हैं तो ज़माना इस मुग़ालते का शिकार हुआ जाता है कि उन्हे लिखना नहीं आता | जैसे कहा जा रहा हो कि टॉप फ्लोर वाले को नीचे उतरना नहीं आता |
तो हम दिखा देंगे ! मैने प्रण किया है कि अगले 20 वर्ष में 10 कथा संग्रह ज़रूर देना है | आप पहली कहानी पर दृष्टिपात करें --
--------------------------------------------
कहानी----विद्वता का मारा लेखक
लेखक-----एम इकराम फरीदी
**************
साहिल बेदर !
युवा जनवादी कथाकार ! उम्र 28 वर्ष ! अभी नौकरी को लेकर पसोपेश की स्थिति थी | एम-फिल कर रखा था |नौकरी के लिए दौड़-धूप जारी थी |
इस अंतराल में वह क्रांतिकारी लेखक या कवि बन जाना चाहता था | प्रखर जनवादी लेखक या कवि | जो भी बन सके | उसे दोनों में से कोई भी बन जाने के लिए कोई शिकायत नहीं थी |
अपने भीतर के लेखन के प्रस्फुटन से वह तब से परिचित था जब उसने अपने हाईस्कूल की उम्र में एक कविता लिख मारी थी |
एक लड़की उसे अच्छी लगती थी | उसका चलना उसके दिल पर चोट करता था | उन दिनों वह साहित्यिक पत्रिकाएं बहुत पढ़ा करता था | वह दौर भी पत्रिकाओं का ही था | उसे पत्रिका-युग भी कहा जा सकता है | मोटे तौर पर 1980 से लेकर 2010 के बीच का काल खंड को पत्रिका काल कहा जा सकता है | उन दिनों इतना जुनून पत्रिकाओं के प्रति हुआ करता था कि एकाध कवि या लेखक तो हर गली में प्रायः पाया जाता था |
वहीं वेशभूषा कवियों या लेखकों वाली | बिखरे मगर शैम्पू से धुले बाल | सूती कुर्ता और पजामा | कंधे पर एक बड़ी बद्दी वाला कपड़े का थैला और यदि आंखों पर पारदर्शी शीशों वाला चश्मा भी धर लिया जाए तो क्या सोने पर सुहागा |
हर देखने वाला 100% गच्चा खा जाए और मान बैठे यह कोई लेखक ही होगा | ना माने तो बस मोहल्ले वाले ना माने ! तो उनकी परवाह कौन करता है ? तमाम मोहल्ले वालों को चुप कराने के लिए एक ब्रह्म वाक्य काफी है ----" घर की मुर्गी दाल बराबर , तुम क्या जानो मैं क्या चीज हूं ,सुदूर शहरों से निकलने वाली पत्रिका मेरी गाथा कहती है |"
साहिल बेदर ने जब b.a. के फॉर्म मे़ं साहित्य सब्जेक्ट फिल किया था तो उसके अहम ने साहित्य के क्षितिज में लंबी छलांग लगाई थी | अब क्या कारण शेष था जो वह प्रसिद्ध लेखक न बन सके | कौन रोका है ? शौक़ ,ज़ौक़़ और इल्म ! यही तो व्याख्या है बड़ा कथाकार बनने की | उसने सोचते हुए हामी में गर्दन हिलाई थी |
उसी दम उसे अपने नाम के आगे उपनाम जोड़ने की धुन सवार हुई | भला उसके बिना क्या नामचीनी ?
वह जुट गया उपनाम ढूंढने में | रह रहकर उसे यायावर नाम बहुत आकर्षित कर रहा था मगर यह चबा चबाया मालूम पड़ता था | जिधर देखो यायावर घूमते हैं | तब उसने यात्री नाम धरा मगर कुछ दोस्तों ने सिरे से ख़ारिज़ कर दिया | इतनी बुरी तरह से उस लड़की ने भी उसे ख़ारिज़ नहीं किया था जो कई कविताओं की संवाहक बनी थी | भले उन कविताओं ने उसे चर्चित ना किया हो लेकिन उनकी बदौलत वे अपने मोहल्ले वाले और निकटतम लोगों पर रौब ग़ालिब करने में सफल रहा था | इसलिए उस लड़की का योगदान वह अपने जीवन में कम करके तो नहीं आंकता था |
वह अक्सर कह उठता था ---"मुझे उसी लड़की ने कवि और लेखक बनाया , यह दूसरी बात है कि मैं उसको कभी फूटी आंख नहीं सुहाया |"
अंततः बेदर नाम उसने पसंद कर लिया और जब इसकी तफसीलात उसने दोस्तों को बताई तो सबने रजामंदी दे दी थी |
"बेदर मतलब दरबदर ! जिंदगी क्या है दरअसल दरबदर होना | कदाचित् बेदर होना | मां के पेट से बेदर होकर धरती पर आए | शिशु काल से बेदर होकर किशोर हुए फिर युवा | हम एक दर पर ठहर ही नहीं सकते इसलिए मैंने अपना उपनाम बेदर रखा |"
वाह वाह ! उसके दोस्त और शुभचिंतक उसे अचरज की दृष्टि से देखते थे | आदमी तो विद्वान है | धुन का पक्का है |आज भले इसकी कविताओं और कथा पर चर्चा ना होती हो लेकिन एक दिन आएगा जब इसे शलाका सम्मान मिलेगा |
बीए के बाद एम ए हुआ | फिर एम-फिल हुआ | इस बीच उसने अपने नाम के आगे प्रखर जनवादी नामक शब्दों का इजाफा और कर लिया था | वह कोई भी कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहता था |
उसे विश्वास था कि राजेंद्र यादव, दूधनाथ सिंह, असगर वजाहत की अगली कड़ी में उसी का नाम आएगा |
उसके पास डिग्रियां भी थी और वेशभूषा भी ! और क्या चाहिए गंभीर कथाकार बनने के लिए ? वह अक्सर आईने के समक्ष खड़ा हो जाता था और अपना चेहरा निहारता था , पारदर्शी चश्मा का चेहरे से कंबीनेशन देखता था | हल्का भी संदेह होता था तो चश्मे का फ्रेम और कलर चेंज कर देता था |
उसे भली प्रकार विश्वास था कि अब उसका समय आ रहा है | पुराने नामचीन कथाकार सक्रिय लेखन से विदाई ले रहे हैं , अब उसी को आगे आना है | यही कारण है कि वह अधिक गंभीर विषय चुनना चाहता था |
कविता में तो उसे कोई आशा नजर नहीं आती थी क्योंकि कई बार उसकी कविताएं खुद उसी की समझ में नहीं आ पाती थी तो भला किस प्रकार विश्वास कर सकता था की कविता कोई क्रांति रच सकती हैं | इंतिहाई हौलनाक बात तो यह थी कि उसकी कोई कविता उसके मोहल्ले वाले या अपरिचित पढ़ तक के नहीं देखते थे |
लाहौल विला कूवत !
जिस दिन किसी पत्र में उसकी कोई कविता छप जाती थी तो वह ऐनक दुरुस्त करके और कुर्ते को फटकार कर बाहर निकलता था | बड़ी आशायें होती थीं के लोग मिलेंगे और हैरत की दृष्टि से देखेंगे | वाह क्या कविता रची है |
प्रभात में ही उसने समाचार पत्र का फोटो खींचकर फेसबुक पर शेयर कर दिया है | लाइक भी धड़ाधड़ आ रहे हैं लेकिन जब बाहर निकलता है तो उसे उस वक्त अपनी रोटियां हराम मालूम पड़ती है जब कोई चर्चा तक नहीं करता और वह नामाकूल शख्स भी चर्चा नहीं करता जिसने दिलवाला लाइक ठोका था और कमेंट में लिखा था ----'अद्वितीय'
उसे खुद ही चर्चा छेड़ना पड़ती है ----"यार... कविता...कैसी लगी कविता ?"
"कविता ?"वह तो भूल भी गया कि उसने कोई लाइक ठोका था और कमेंट भी लिखा था | पूछने लगा----" किसकी कविता ?"
"अबे मरदूद मेरी |"
" तेरी ---तू तो यार क्या गजब लिखता है | देखना एक दिन तू बहुत बड़ा साहित्यकार बनेगा | तेरे ऊपर पीएचडी होगी |"
वह गदगद हो गया | नारी को सुंदरता की तारीफ और फ़नकार को फन की तारीफ उसकी बुद्धि पर विराम लगा देती है |
वह खुश हो गया | यही तो सुनना चाहता था |
मगर इन दिनों उसने अपने भीतर क्रांतिकारी परिवर्तन किए थे | अब कोई कविता नहीं लिखेगा सिर्फ कथाएं लिखेगा | राष्ट्रीय चेतना जगाने वाली कथाएं | पाषाण हृदय को भी जो संवेदना से भर दे |
इसी क्रम में वह लगा था | कई पत्रिकाओं में उसकी कथाएं छपती रहती थीं |
एक दिन उसके साथ अजब हादसा हुआ | वह एक गली से गुजरा जा रहा था | अपनी सोच में गुम था | वहां एक मुल्ला जी था जो ठेली रिक्शा ढो रहा था और रददी को बेचने की पुकार लगा रहा था |
मुल्लाजी की घनेरी दाड़ी थी | एक जालीदार टोपी सिर पर बेतरतीब ढंग से रखी थी | कुर्ता पजामा पहन रखा था |पजामे का एक पायचा थोड़ा ऊंचा घुरसा हुआ था | नारा छोड़ रहा था----" पुरानी किताबें बेच लो... अखबार बेच लो... रद्दी बेच लो |"
सामने से कथाकार साहिल बेदर आ रहा था | मुल्लाजी की नजर उस पर पड़ती है | मुल्लाजी ने टोंक दिया -----"साहिल साहब |"
साहिल चौक उठा | यह दूसरा मोहल्ला था | यहां अमूमन लोग उसे नहीं जानते थे और कम से कम यह मुल्लाजी तो नहीं जानता था क्योंकि वह खुद मुल्लाजी को नहीं जानता था | संबोधित हुआ---" हां जी |"
"आप कहानियां लिखते हैं ---- साहिल बेदर -----वही है ना आप --?"
साहिल प्रसन्न हो गया | यह उसके जीवन का पहला वाक्या था कि उसके अपरिचित रीडर ने उसे पहचाना था | मानो उसे मोक्ष प्राप्त हो गया हो |
वह खनकते स्वर में बोला ----" हां... आपने ठीक पहचाना---|"
" शायद आप बेरोजगार हैं ?"
इस बार साहिल बुरी तरह चौका था | अप्रत्याशित प्रश्न था |
ठहरे स्वर में बोला----" हां ...आपने ठीक पहचाना |"
मुल्लाजी हंसा |बोला---" आप की कहानियां बताती हैं ,मुझे कहानियां पढ़ने का बहुत शौक़ है | यह किताबें मैं पहले देर तक पढ़ता हूं और उसके बाद मैन कबाड़ी को
बेचता हूं |"
"वह तो ठीक है लेकिन तुमने यह कैसे जाना कि मैं बेरोजगार हूं ?"
"अरे साहब... कहानियां बोलती हैं ,आप क्या समझते हैं ----एक बेरोजगार व्यक्ति कहानी लिखेगा तो कहानियां अवसाद से घिरी होंगी, वाक्य विन्यास बिगड़ा होगा , और अगर कहीं बरसरे रोजगार जब कहानी लिखेगा तो प्रवाह ही मजेदार होगा , एक एक शब्द से रोमांच फूटता होगा |"
साहिल बेदर उस मुल्लाजी को देखता रह गया | उसने बहुत किताबें पढ़ रखी थी लेकिन ऐसा बिरला अनुभव उसे पहली बार मिल रहा था |
वह अपलक उस मुल्लाजी को देखता रह गया जबकि मुल्लाजी मुस्कुरा रहा था |
साहिल बोला----" थोड़ा परिभाषित करो |"
मुल्लाजी तुरंत बोला ---"वो कोई भी काम करते हुए मन अप्रसन्न रहता है जिसके बदले में धनोपार्जन न हो जबकि उस समय हमें धन की ज़रूरत हो , ऐसे समय में धन न कमाना एक अपराध है और इस अपराधबोध के मद्देनज़र अवसाद की पैदावार होने लगती है |"
साहिल बुरी तरह चकित था | वह आशा नहीं कर सकता था कि सामने खड़ा मुल्लाजी इन शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है |
"तो आपका मतलब है कि मेरी कहानियों में गहरा अवसाद होता है ?"
"बोरियत की हद तक---- पढ़ नहीं मिलती लेकिन इस कारण के चलते पढ़ता जाता हूं कि लेखक कितना मूर्ख हो सकता है -----|"
एक और नाकाबिले बरदाश्त तीर चल गया था |
वह विचलित हुआ मगर मुल्लाजी मैं कुछ खास था जो प्रेरित कर रहा था |
साहिल ने टूटे शब्दों में पूछा ---"आपका मतलब है कि मुझे लिखना बंद कर देना चाहिए ?"
"शौक़िया तौर पर लिखो ---- देखो |" मुल्लाजी अपनी पूरी फार्म में नज़र आता था----"अब दौर बदल चुका है --- तुम जय शंकर प्रसाद, अज्ञेय और निर्मल वर्मा की परंपरागत शैली को आगे बढ़ाना चाहोगे तो भारी भूल करोगे--- कहानी लेखन हमेशा रहेगा लेकिन बदलते परिदृश्य के साथ लेखक को बदलना पड़ेगा --- दुनिया की हर कला बाजारवाद से होकर गुजरती है---- बाजारवाद के नियमों को तस्लीम करना होगा ----आज के साहित्य की यह पहली शर्त है कि उसे मनोरंजक होना चाहिए--प्रसाद या अज्ञेय के जमाने में गंभीर विषय उसी तरह उठाए जा सकते थे जैसे उन्होंने उठाएं---कथा ही एक माध्यम था लेकिन आज गंभीर विषय सिर्फ कथा के मोहताज नहीं है--- सोशल मीडिया पर एक वीडियो ,एक वक्तव्य, एक इमेज देशभर में हलचल पैदा कर देती है तो तुम्हारी कथा का धैर्य कौन लाएगा---?-- यहां तो तुरंत प्रसारण है और प्रतिक्रिया और तुरंत निष्कर्ष है ----|"
मुल्लाजी ने सांस ली थी |
वह मुल्लाजी को एलोरा गुफा देखने की दृष्टि से देख रहा था | मानो उसके कदम यथार्थ पर आ रहे हों | उसके भीतर कुछ टूट रहा था | भीतर धूम धड़ाम हो रहा था |
उसे चुप देखकर मुल्लाजी आगे बोलता चला गया----" बने बनाए फ्रेम के बाहर आओ निकलकर --- अब इब्ने सफी की दुनिया आबाद रहने वाली है ---शब्दों में ऐसा जादू होना चाहिए कि जो पढ़े तो फिर छोड़े ना ---शब्द में विद्युत क प्रवाह हो |"
" लेकिन लोकप्रियता को साहित्य की कसौटी तो नहीं माना जाता |"
"ये मूर्खता भी अब विदा होने वाली है-- दुनिया में बड़े बड़े परिवर्तन आते हैं और दुनिया एक कदम सत्य की ओर बढ़ जाती है ----अरे भाई जो ग्रहणीय नहीं होगा वह साहित्य कैसे हो सकता है ---?---मैं कम से कम पढ़ तो सकूं , पढ़ा ही ना जा सके वह कैसा साहित्य--- लोकप्रिय होना आखिरी शर्त भले न हो लेकिन पहली शर्त जरूर होना चाहिए जो अच्छा होगा वहीं पढ़ा जाएगा ---बाकी आप एक दूसरे की पीठ खुजाते रहो , उससे कम से कम साहित्य का तो भला नहीं होने वाला --- देखो ---|"मुल्लाजी दुगने जोश में आया और बोला ---"सच्चा साहित्य वह है जो मज़ा दे -------भाषा का मज़ा---- शब्दों का मज़ा--- शब्द के प्रयोग का मज़ा---- प्रवाह का मज़ा--- कहन का मज़ा---- विषय का मज़ा--- और फिर निहितार्थ का मज़ा---|"
" तुम तो भाई विद्वान मालूम पड़ते हो |"
" कोई विद्वान नहीं साहब बस पढ़ाकू हैं--- अब तो रीडिंग कम कर दी वरना एक दौर था कि हम सब अपने खानदान के लोग लंच करते वक्त कुल्लियाते इक़बाल पर चर्चा करते थे और डिनर पर दीवाने ग़ालिब हमारा विषय होता था मगर अब वो दिन नहीं रहे , सब लोग अपनी अपनी मसरूफियात में डूब गए |"
मुल्लाजी हंस रहा था | हंसते हुए बात करना उसका स्टाइल था |
साहिल बेदर के भीतर टूट-फूट हो रही थी | उसे यूं लग रहा था कि वह किसी गहरी खाई में गिरता जा रहा था | उसका अंतस आर्तनाद कर रहा था | वह उस मुल्लाजी का अधिक सामना नहीं कर सकता था |
साहिल बेदर वहां से हट गया था | अपने रास्ते हो लिया था | जहां जा रहा था उस रास्ते पर आगे बढ़ गया था | दिमाग़ में चक्रवात घूम रहा था | अभी उस रास्ते पर 50 क़दम भी आगे नहीं बढ़ पाया होगा कि वह ठिकका-----
उसने सोचा मैं इस रास्ते पर क्यों चल रहा हूं ? यह तो निरर्थक है | मुल्लाजी ठीक ही तो कह रहा था कि हर युवक को कदाचित जीवन का शुभारंभ करने वाले को पहला रास्ता धनोपार्जन का चुनना चाहिए |
साहिल बेदर ठिठक गया |
वह वापस पलट गया | उसने यू-टर्न ले लिया | 360 डिग्री का यू-टर्न लिया था और जिस तरफ जा रहा था वो रास्ता छोड़ दिया था और जो रास्ता छोड़ आया था वह रास्ता पकड़ लिया था |
2 साल गुजरे साहिल बेदर एक कॉलेज में पढ़ाता था |साहित्य का अध्यापक था | इन गुज़िश्ता 2 साल में उसके हाथ से कलम छूट गया था जैसे विधवा के हाथ से हिना दूर हो गई हो | वह अंतस की इतनी गहरी खाई में गिरा था कि अगले 2 साल तक तो मुंह से सिर्फ कराह निकली थी |
लेकिन दो साल बाद उसके भीतर का लेखक पुनः जागृत होने लगा था | समाज में घटने वाली कुछ घटनाएं उसे विचलित कर रही थीं | उसे सोने नहीं देती थीं | उसके विद्रोह का कारण बनती थी | उसका लेखक मन बरहम हुआ जाता था | उसकी तन्हाईयां उसे डसती थीं | उसकी तनहाइयां उससे उसकी उपलब्धियां मांगती थीं | उसकी सार्थकता तलाश करती थीं और उसके जिंदा रहने के कारण पूछती थीं और वह निरुत्तर हो जाता था |
अवाक------
फिर उसकी तनहाइयां उस पर हंसती थीं | यूं उसके भीतर का लेखक दोबारा उठ खड़ा हुआ था | कुछ प्रसंग थे जिन्हें वह ज्यों का त्यों समाज के आगे परोसना चाहता था और उससे संबंधित प्रश्नों की झड़ी लगा देना चाहता था |
एक हफ्ता हुआ उसकी बेचैनी की कोई सीमा नहीं थी |भीतर का विषाद बढ़ता जा रहा था | भूख प्यास खत्म हो रही थी | यह अवसाद की एक अवस्था थी कि उसका किसी से बात करते हुए मन नहीं लगता था | कुछ अनुत्तरित प्रश्न थे जो उसे दीमक की तरह खाए जा रहे थे |उन प्रश्नों का उत्तर किन्ही किताबों में नहीं मिल रहा था | बड़ा साहित्य उसने छान डाला था |
हाल में क्रिएट हुए सांप्रदायिक हालात पर उसे एक उपन्यास लिखना था | समाज में सांप्रदायिकता बढ़ती जा रही थी | आखिर क्यों और उसका क्या निवारण हो सकता है ? हर समस्या का समाधान होता है , क्या इस सांप्रदायिकता का भी कोई समाधान है ? वैश्विक हालात देखकर लगता तो नहीं लेकिन दर्शन निरर्थक नहीं हो सकता | हर समस्या का समाधान होता है तो यूं जाने होता है |
वह समाधान ढूंढने में जुटा था | अनेकानेक किताबें पढ़ डाली थीं मगर एक किताब भी उसके काम की नहीं साबित हुई थी | सब भटकी हुई बातें करती थी | गुमराही की बातें ! सटीक चोट एक भी किताब नहीं कर रही थी |लगता था इन किताब के लेखकों का स्वानुभव शून्य रहा होगा | साहिल बेदर की तरह | साहिल का भी स्वानुभव शून्य था | बाहर से जो कुछ मिलता था, वह ग्रहण करता था | तमाम परानुभव का वह प्रकांड हुआ बैठा था | कितनी डिग्रियां उसने बना रखी थीं | प्रोफेसर के संबोधन से पुकारा जाता था मगर स्वानुभव उसका सोया हुआ था | अब क्या जागेगा ? सबका नहीं जागता है | खुदादाद सलाहियत इंसानी हुसूल से बाहर होती हैं | प्रतिभाएं बनती नहीं है , पैदा होती हैं |
उसे उस मुल्लाजी की याद आई | निसंदेह वह व्यक्ति उसके अनुत्तरित प्रश्नों का मान रख सकता है | वह अधिक पढ़ा लिखा नहीं है लेकिन प्रकृति के हर गोशे में दख़्ल रखता है |
वह चल पड़ा उस मुल्लाजी की खोज में | कदापि आशा नहीं थी कि उससे भेंट भी हो सकती है | वह उसका पता, ठिकाना ,नंबर यहां तक के नाम भी नहीं जानता था लेकिन एक आशा की किरण थी और उसका जुनून था | वह भगवान से परिचित था , ऐसा हो नहीं सकता कि भगवान उसे मिलाकर ना दे |
वह अपने उस पुराने शहर में आ गया | उसने खोजने की दौड़-धूप जारी रखी , जैसे शहर भर के लोगों में एक आदमी को ढूंढ रहा हो | अफसोस की बात तो यह थी कि उसे इस बात का भी खदसा था कि वो मुल्लाजी उसके सामने पड़ जाए और वह उसे पहचान ही सके |
2 साल पहले उसने उसे एक नजर ही तो देखा था | हां उसका लबो लहजा नहीं भूल सकता | वह तो जीवन पर्यंत भी नहीं भूल सकता |
पूरे 3 दिन लग गए ... लेकिन उसने खोज निकाला |
नाम उसे पता चल चुका था | यासीन मुल्लाजी | रद्दी के कबाड़ी की शिनाख्त से बहुत लोग जानते थे उसे | वह यासीन मुल्लाजी के घर जा पहुंचा |
उसने सलाम अर्ज किया | मुल्लाजी ने जोशो खरोश के साथ जवाब दिया | जब साहिल ने खुद को पहचानवाया तो मुल्लाजी को थोड़ी परेशानी हुई लेकिन जब वाक़्ये की याद दिलाई तो मुल्लाजी चहचहा उठे---- "आहा...मेरा लेखक---|"
" हां जनाब... वही हूं मैं--- |"
"वाह क्या बात है ---मीर का एक शेर याद आ रहा है ----यूँ पुकारे हैं मुझे कूचा ए जानां वाले------ मियां...यूँ पुकारे हैं मुझे कूचा ए जानां वाले ------ इधर आ बे अबे ओ चाक-गरेबां वाले ----------हा हा हा हा हा----- मेरा यार आया है आज चाक-गरेबां वाला |"
मुल्लाजी ने उसे गले लगा लिया | उसकी रूह को आज तस्कीन मिली थी | इतनी किताबें गले लगाने के बाद उसे तस्कीन नहीं मिली थी मगर मुल्लाजी को गले लगाना उसे यूं लगा कि उसकी रूह के घाव को मुल्लाजी ने गुलाबजल से धो डाला हो | उसका मदावा कर दिया हो |
दोनों की औपचारिक बातचीत हुई | मुल्लाजी गदगद हुए यह जानकर कि लेखक असिस्टेंट प्रोफेसर बन चुका है |
कुछ समय बाद साहिल काम की बात पर आया----" यासीन भाई , मैं सांप्रदायिकता पर एक उपन्यास लिखना चाहता हूं | यह सांप्रदायिकता हमारे देश को निगल जाएगी | किताबों से जितना अध्ययन कर सकता था , मैंने कर लिया लेकिन संतुष्टि नहीं मिल रही थी , आपका नज़रिया जानना चाहता हूं |"
"सांप्रदायिकता--- हा हा हा हा ---|"वह स्वाभाविक रूप से हर बात का चटकारा लेता था और उससे मज़ा उठाता था | वह बोला----" तुम उस उपन्यास में यथार्थ पेश नहीं कर पाओगे , बेहतर है ना लिखो और अगर लिखना चाहो तो लिखने की क्षुधापूर्ति मात्र करोगे , किसी परिवर्तन की आशा नहीं कर सकते |"
"क्यों ----मैं परिवर्तन ही करना चाहता हूं , इसीलिए इतना परेशान हूं |"
"क्या तुम सोशल इनकरेक्ट रहकर सरवाइव कर सकते हो ?"
"मतलब ---?"
"जिन लोगों के साथ बैठते उठते हो , जो तुम्हारे जीवन यात्रा के साथी हैं , अगर तुम सच लिखोगे सब बिछड़ जाएंगे और दुश्मन हो जाएंगे ---भारत का आदमी समाजिक जिंदगी में विश्वास करता है , यही कारण है कि यहां एक ओशो के अलावा एक भी विचारक पैदा नहीं हो पाया ----सबने सामाजिक मूल्यों के साथ समझौता कर लिया --- सच लिखोगे तो घर छोड़ना पड़ जाएगा ,गौतम बुद्ध की तरह ,ओशो की तरह |"
साहिल की पेशानी चुह रही थी | वह पसीने से सराबोर हो रहा था | उसकी सांसें धौंकनी की मानिंद चल रही थीं | यासीन ने उसे ऐसी कल्पना करा दी थी कि धर्मोपदेशक नरक की लाख परिभाषाएं गढ़ने के बाद भी इतनी भयावह कल्पना उसे नहीं करा पाए थे |
वह पसीने से लथपथ हो रहा था |
यासीन आगे बोला-----" इसलिए यथार्थ को उकेरने का ख्याल छोड़ दो , उपन्यास ज़रूर लिखो लेकिन खुद को पॉलीटिकल और सोशल करेक्ट के खांचे में रखकर --- सत्य की चिंता मत करना , अपने समाजिक मूल्यों की चिंता करना---- यही नामनिहाद साहित्य की रचना आज तक भारत में होती आई है , इसी कूड़े के ढेर में थोड़ा सा वजन और बढ़ा देना ----आखिर तुम्हारी सामाजिक प्रतिष्ठा में चार चांद लगेंगे ----आयोजन होगा , विमोचन होगा , तुम्हारे क़सीदे पढ़े जाएंगे और तुम्हारी मेहनत सफल हो जाएगी और क्या चाहिए तुम्हें ----?"
साहिल निचुड़ चुका था | बिलकुल उस गन्ने की तरह जिसे कोल्हू से बार-बार गुज़ारा जा रहा हो |
साहिल की आंखों में दूर तक शून्य व्याप्त था |
थोड़ी देर बाद वह वहां से वापस चला गया था | उसे उपन्यास तो लिखना था मगर अब उसे यह भी इल्म था कि वह तथाकथितय साहित्य के कूड़े का थोड़ा आकार बढ़ाने जा रहा है |
वह फिर वापसी की राह पर चल पड़ा था |
*** समाप्त ***
लेखक---- एम इकराम फ़रीदी
Grt, write more।
ReplyDeleteशुक्रिया सर
ReplyDelete