मनोरोग और समाधान
ये जानकर आश्चर्य
होगा कि मनोरोगों के सम्बंध में जितनी भ्रांतियाँ तंत्र-मंत्र के स्तर पर व्याप्त
हैं, उतनी ही भ्रांतियाँ मनोविज्ञान में व्याप्त हैं। यानि तंत्र-मंत्र में माना
जाता है कि व्यक्ति पर भूत प्रेत का साया पड़ गया है। कदाचित व्यक्ति पर भूत-प्रेत
ने अपना कब्जा जमा रखा है,
इत्यादि विचार देश दुनिया में व्याप्त हैं।
चूँकि अब तक
मनोविज्ञान में मनोरोग का समुचित हल नहीं था, इसलिए विवश होकर मनोरोगी को तंत्र-मंत्र की शरण में
जाना पड़ता था और उसके निराधार नियमों की पूर्ति करनी पड़ती थी।
इसी हेतु हम देखते
हैं कि विभिन्न धार्मिक स्थल, मजार, मंदिर, कोई विशेष स्थान पर मनोरोगी झूमते हुए, खेलते हुए, पटकी खाते हुए बहुत आसानी से नजर आते हैं।
तांत्रिक और मौलवी
लोग रोगी पर बकायदा मुकदमा चलाते हैं। बाकायदा मुकदमें की तारीखें पड़ती हैं, पेशी होती है, सवाल-जवाब होते हैं और जजमेंट के उद्घोष किये जाते हैं, लेकिन बताते चलें ये सब बकवास, निराधार और मिथकीय है। न तो उस तांत्रिक और मौलवी
के पास कोई शक्ति होती है और न मनोरोगी के ऊपर कोई परकाया का प्रभाव लेकिन ये
दस्तूर कुछ इस प्रकार अपनी जड़ें जमा चुका है कि विद्वान से विद्वान आदमी भी इस
दृश्य को देखकर खुद को भ्रमित होने से नहीं रोक पाता और कहीं न कहीं मानने को विवश
होता है कि अवश्य ही रोगी पर किसी परकाया का प्रभाव है वरना रोगी और तांत्रिक के
बीच इस प्रकार की वार्ता क्यों होती है? ये कौन है जो रोगी के भीतर से बोलता है? तांत्रिक से लड़ता है?
गाली गलौच करता है? क्यों एक रोगी इस बुरी तरह से पटकी खाता है कि देखने वाले के रोंगटे खड़े हो
जाते हैं?
तंत्र-मंत्र की भाषा
में मनोरोगी पर परकाया का प्रवेश माना जाता है।
आश्चर्यजनक बात ये
है कि मनोरोगी खुद ये मानकर चलता है कि उस पर किसी परकाया ने अपना कब्जा जमा रखा
है और उसकी इस धारणा को बल मिलता है हमारी परम्पराओं से और भूत-प्रेत के नाम पर
इलाज करने वाले कुकुरमुत्तें की तरह उग आये उन तांत्रिक और मौलवियों से जो रोगी को
समझाते हैं कि तुमको किसी शक्ति ने अपने वश में कर रखा है।
मनोरोगी क्यों भ्रम का शिकार होता है कि मुझ पर परकाया प्रवेश हो चुका है?
जब वास्तविक रूप से
मनोरोगी पर किसी परकाया का प्रवेश होता ही नहीं है तो स्वाभाविक रूप से ये प्रश्न
पैदा होता है कि फिर मनोरोगी इतना भ्रमित कैसे हो जाता है कि वह खुद पर किसी शक्ति
का ग्रहण महसूस करता है और उसी प्रकार की हरकतें क्यों करने लगता है? कदाचित किसी विशेष स्थल पर पटकियाँ खाना, दौड़ना, भागना तांत्रिक, मौलवी या किसी अन्य शक्ति से लम्बी-लम्बी बातें
करना और ये दोहराना कि मैं इसे नहीं छोड़ूंगा, इसे मार डालूंगा इत्यादि।
कोई भी मनोरोगी
मनोरोग की चपेट में आने से पहले एक सामान्य व्यक्ति होता है। कदाचित वह ‘सामान्यता’ का भलीभाँति अनुभव कर चुका होता है।
सामान्य रूप से दिल
और दिमाग किस प्रकार काम करते हैं, इसका अनुभव या कहो कि स्वाद वह ले चुका होता है। जब
व्यक्ति मनोरोगों की चपेट में आता है तो दिल और दिमाग का तारताम्य टूट जाता है।
किसी भी मामले के
संज्ञान के लिए हम दिल और दिमाग का समान रूप से इस्तेमाल करते हैं। व्यक्ति जब
मनोरोगी हो जाता है तो दिल का संबंध दिमाग से टूट जाता है। यही पागलपन की स्थिति
होती है। व्यक्ति की सामान्यता भंग हो जाती है।
अमूमन मन से
भावनायें उठती हैं और मस्तिष्क के केन्द्र से टकराकर वे व्यक्ति के नजरियें पर
परिभाषित होती है। सरल शब्दों में यूं समझ सकते हैं कि व्यक्ति के मन से उठने वाली
भावनाओं को हम मस्तिष्क द्वारा समझ
पाते हैं और फिर उन भावनाओं को हम अपने व्यवहार में लाते हैं कि हमें इस विषय पर
हँसना है, कि रोना है कि बोलना है या क्या व्यवहार करना है। चूँकि अब मन से भावनायें तो
उठ रही हैं लेकिन मस्तिष्क के केन्द्र तक नहीं पहुँच पा रही है। वहाँ रूकावट पैदा
हो चुकी है। मन-मस्तिष्क का तारताम्य टूट चुका है। इसी हेतु हम मनोरोगी बने हैं।
तो व्यक्ति ये नहीं समझ पाता कि आखिर मेरे साथ ये हो क्या रहा है? मामूली से मामूली बात भी मैं उस तरह महसूस क्यों नहीं कर पा रहा हूँ जैसे पहले
किया करता था। पहले तो कोई भी बात मुझे खुद बताती थी कि मुझे इस पर क्या व्यवहार
करना है या क्या स्टैण्ड लेना है? पहले कोई भी बात खुद ब खुद व्यवहार में उतर जाती थी
और अब मुझे उन्हीं बातों को व्यवहार में लाने को संघर्ष करना पड़ रहा है कि फलां
बात को किस व्यवहार में लाऊं?
सरल शब्दों में कह
सकते हैं कि एक मनोरोगी और सामान्य व्यक्ति में यही अंतर होता है कि सामान्य
व्यक्ति का व्यवहार स्पष्ट होता है क्रिया-प्रतिक्रिया स्पष्ट होती है। कोई भी
क्रिया प्रतिक्रिया खुद ब खुद व्यवहार के पटल पर प्रदर्शित हो जाती है। इसके लिए
कोई अतिरिक्त संघर्ष नहीं करना पड़ता लेकिन
मनोरोगी के मन से उठने वाली भावनाएँ मस्तिष्क के केन्द्र तक नहीं पहुँचती इसलिए वह
नहीं समझ पाता कि किस क्रिया-प्रतिक्रिया पर क्या व्यवहार करना चाहिए?
चूँकि भावनाएँ
मस्तिष्क का प्रयोग नहीं कर पा रही है इसलिए मानसिकता पर दबाव बढ़ रहा है। फलस्वरूप
दिल की घबराहट, सिर में दर्द, बेचैनी, व्याकुलता, नींद का न आना, साँसों का अनियंत्रित होना, नकारात्मकता, हताशा, निराशा इत्यादि लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं।
ऐसी स्थिति में
व्यक्ति अपनी सामान्यता खो चुका होता है। हतप्रभ होता है कि मुझे हो क्या गया? मैं तो सामान्य था? खूब हँसता खिलखिलाता,
गाता, आनंदविभोर होता था। जिंदगी के अभूतपूर्व मजे आ रहे थे। हर चीज प्रिय लगती थी
और अब ऐसा क्या हो गया कि कहीं भी मन नहीं लगता। हर वक्त मन उखड़ता है। घबराहट होने
लगती है, भीड़ से घबराहट होती है। ऐसा लगता है जैसे अभी कुछ हो जाएगा, जैसे अभी ब्रेनहेमरेज हो जाएगा, जैसे अभी हार्ट अटैक हो जाएगा। जैसे ब्लड प्रेशर
बहुत डाउन या अप हो। सिरदर्द और चक्कर आना लगातार बने हुए हैं।
दिनचर्या पूरी तरह
से बिगड़ चुकी है। सुबह उठने के बाद जो अनुभूतियाँ होती थीं, अब नहीं होती। अपने कार्य के प्रति जो समर्पण भाव था, वो खत्म हो चुका है, कार्य को निपटाने की जो प्लानिंग तैयार की जाती थी, अब मस्तिष्क बिल्कुल सहयोग नहीं करता, बल्कि सोचते हुए ही घबराहट होने लगती है। घबरा जाते
हैं। पसीना सा आ जाता है। दिल बैठ जाता है। ब्रेक नर्वस डाउन हो जाता है।
दिनचर्या पूरी तरह
से बिगड़ चुकी है।
ये सारे लक्षण एक
मनोरोगी के हैं। इन लक्षणों में घिरने के बाद यानि मनोरोगी होने के बाद व्यक्ति या
तो डाक्टर के पास जाता है या तंत्र मंत्र के सनिध्य में जाता है।
चूँकि मनोविज्ञान भी
मात्र कयासों और मिथकों पर निर्भर है। समस्या के मूल की जानकारी न होने पर मिथक
स्वतः जन्म ले लेते हैं। सो मनोविज्ञान बहुत सारे मिथकों से भरा पड़ा है।
जैसे माना जाता है
कि मनोरोग का कारण बिना उचित मेहनत किये अच्छे परिणाम को पाने की उत्कंठा मनोरोग
का कारण बन जाती हैं, माना जाता है कि भय के चलते व्यक्ति मनोरोग से ग्रस्त हो जाता है। माना जाता
है कि मनोरोग अनुवांशिक होता है। माना जाता है कि व्यक्ति शारीरिक रोगी होने की
चिंता में मनोरोगी हो जाता है या फिर अनिश्चय, असुरक्षा के चलते व्यक्ति मनोरोगी हो जाता है।
बताते चलें कि मनोविज्ञान के उपरोक्त दर्शन सिर्फ कयास और मिथक के सिवा कुछ नहीं
हैं। चूँकि मनोविज्ञान मनोरोग के मूल कारण को जानता नहीं है इसलिए समाधान की भी
जानकारी होना असंभव है। सो मनोचिकित्सक रोगी को कुछ मिथ्या सलाह के अलावा मस्तिष्क
को सुन्न करने वाली तथा नींद आने वाली दवाओं पर डिपेंड है।
चूँकि दवाओं से
समस्या के मूल पर प्रहार नहीं हो रहा था इसलिए समस्या का रूप विकराल होता जाता है।
विवशतावश रोगी
तांत्रिकों, मौलवी और धार्मिक स्थल की शरण में जाता था। वहाँ रोगी को समझाया जाता था कि
तुम पर वशीकरण हो चुका है। किसी शक्ति ने तुम्हें अपने वश में कर लिया है। कोई
भूत-प्रेत, जिन्न, चुडैल इत्यादि ने कब्जा जमा लिया है।
रोगी ये तो महसूस कर
रहा है कि मेरी मानसिकता बाधित हो चुकी है तो कम धैर्य वाले या कहो कि भूत-प्रेत
पर यकीन करने वाले स्वतः ये मानने को विवश होने लगते हैं कि अवश्य ही मेरे ऊपर
वशीकरण हो चुका है। किसी शक्ति ने मुझ पर कब्जा जमा रखा है। वह उक्त स्थल का
वातावरण देखता है, वहाँ पहले से उस जैसे मरीज झूम रहे हैं, खेल रहे हैं, हुंकार भर रहे हैं, अदृश्य शक्तियों से बातें कर रहे हैं। इस प्रकार मनोरोगी भी झूमने लगता है।
मनोरोग की खास बात
ये है कि रोगी जिस एंगिल से सोचता है कि मुझे ऐसा हो गया लगता है तो उसे वैसी ही
अनुभूतियाँ होने लगती हैं। जैसे कि रोगी माने कि मुझ पर किसी शक्ति का वास हो चुका
है तो उसे स्वतः ऐसी फीलिंग और अनुभव होंगे कि सचमुच मुझ पर किसी शक्ति का
नियंत्रण है और वो शक्ति ऐसा चाहती है और वैसा चाहती है।
मनोरोग की दूसरी खास
बात ये है कि रोगी समाधान हेतु जो भी उपाय करेगा जैसे कि मनोचिकित्सक की सलाह और
दवा पर डिपेंड होना या फिर तांत्रिक के ताबीज और पेशी पर डिपेंड होना, तो शुरूआत में ऐसी फीलिंग होगी कि मैं अब ठीक होने लगा और पहले से बेहतर
स्थिति में हूँ। दिल की घबराहट कुछ कम महसूस होगी, सिर दर्द या चक्कर आने में
कमी दर्ज होगी। दिनचर्या में सुधार महसूस होगा और इस सुधार का एकमात्र कारण ये
होता है कि रेागी खुद मान लेता है कि मैं अब ठीक हो रहा हूँ। सिर्फ इसलिए वो थोड़े
टाईम को खुद को रिलीफ में महसूस करता है जबकि वास्तविक रूप से उसकी समस्या बनी हुई
है। बल्कि कहना चाहिए कि समस्या एक कदम आगे बढ़ चुकी है। मानसिकता में एक बल और पड़
चुका है। मानसिकता पहले से ज्यादा उलझ चुकी है। इसका रहस्य तब खुलता है जब निश्चित
समय के गुजर जाने के बाद भी रोगी सामान्य नहीं हो पाता, तो उसको जो हौसला मिला होता है। जो आशा जगी होती है, इसी आशा के वशीभूत तो वह अच्छा महसूस कर रहा था। उस आशा के धूमिल होने पर रोगी
खुद को पहले से ज्यादा समस्याओं में ग्रस्त पाता है और फिर वो डाक्टर बदलता है
अथवा तांत्रिक बदलता है।
यों रोगी तांत्रिक
स्थल पर या धार्मिक स्थल पर झूमने और खेलने लगता है। वह महसूस करता है कि मुझ पर
निश्चय ही परकाया प्रवेश हो चुका है। फिर वो इस तरह बातें करता है जैसे अपने अंदर
की किसी शक्ति से बातें कर रहा हो। रोगी जब इस पथ पर आगे बढ़ता है यानि झूमने-खेलने
के पथ पर आगे बढ़ता है तो वह इस चक्रव्यूह में घिरता जाता है। पहले मात्र झूमेगा, फिर खेलना शुरू करेगा,
फिर कुछ दिन बाद वार्ता शुरू करेगा। पहले अपनी बात कहेगा कि मुझे छोड़ दो....
मुझे आजाद कर दो इत्यादि।
ये एक यात्रा है
रोगी इस मार्ग पर बढ़ता चला जाता है। तांत्रिक रोगी के अंदर के भूत से पूछता है कि
तू इसे कब छोड़ेगा या तू इसे छोड़ इत्यादि। तो रोगी स्वतः इस तरह बोलता है माना उसके
अंदर का भूत बोल रहा हो कि मैं इसे बरबाद कर दूँगा, कि मैं इसे मार डालूंगा
इत्यादि बहुत सी बातें।
दरअसल ये सब मनोरोगी
ही बोल रहा होता है। ऐसी प्रेरणा उसे आसपास के माहौल से मिलती है। बचपन से सुनते आ
रहे किस्से कहानियों से मिलती है।
तीसरी खास बात कि
मनोरोगी को उसके परिवार वाले या फिर आसपास के लोग नौटंकीबाज समझने लगते हैं। या
फिर खुद को न संभाल पाने वाला, वहमी और फिजूल की सोच रखने वाला करार दे दिया जाता
है।
जब भी रोगी सिर दर्द
या दिल की घबराहट या निराशा या आत्महत्या इत्यादि का उद्घोष करता है तो उसके
परिवार और आसपास के लोग उसे समझाते हैं कि खुद को कंट्रोल करो, ये सब समस्या इसलिए है कि तुम खुद को संभाल नहीं पा रहे हो, दरअसल तुम्हें कोई समस्या ही नहीं है तुम नौटंकी ज्यादा करते हो, तुम्हें परेशानी क्या है, तुम मेहनत से बचना चाहते हो, तुम कामचोर हो- इत्यादि इल्जाम रोगी पर लगते हैं तो वह बुरी तरह से परेशान हो
उठता है। आखिर कैसे समझायें कि उसे क्या हुआ है, कोई समझने को क्यों तैयार
नहीं है? आखिर पहले भी तो मैं ही था? तब तो मै कामचोर नहीं था। तब तो मैं नौटंकी नहीं
करता था। आखिर कोई इस बात को क्यों नहीं समझ रहा है कि मैं बहुत पीड़ा से गुजर रहा
हूँ दिल पर इतनी घबराहट होती है कि बस आत्महत्या ही अंतिम उपाय नजर आता है!
तो मनोरोगी परिवार
और आसपास के लोगों का मुंहबंद करने के लिए भी धार्मिक और तांत्रिक स्थल पर
झूमता-खेलता और भूत की बड़ी भूमिका अदा
करने की कोशिश करता है ताकि किसी तरह तो कोई समझे कि मैं वास्तविक रूप से बहुत
परेशान हूँ।
उपरोक्त कारणों के
वशीभूत मनोरोगी विभिन्न स्थलों पर झूमते खेलते नजर आते हैं। वास्तविक रूप से न तो
मनोरोगी के अंदर कोई भूत प्रेत होता है और न तांत्रिक और धार्मिक सथल में कोई
शक्ति। न कोई पेशी पड़ती है और न कोई मुकद्मा चलता है। चूँकि रोगी ऐसा मानकर चलता
है कि मेरे ऊपर परकाया है इसलिए उसको वैसी फीलिंग होने लगती है।
इसके विपरीत बहुत से
मनोरोगी भूत-प्रेत और परकाया पर विश्वास नहीं करते हैं। बहुत से मनोरोगी सिर्फ मनोचिकित्सक
पर भरोसा करते हैं तो उन्हें कभी कोई भूत परेशान नहीं करता। मेडिसन बेस्ड मनोरोगी
लम्बे समय तक दवा और व्यवहार थैरेपी पर काम करते रहते हैं लेकिन पूर्ण स्वस्थ वे
भी नहीं हो पाते क्योंकि अभी तक हमारे मनोविज्ञान में मनोरोगों के मूल को जाना
नहीं गया था इसलिए मनोचिकित्सक अपने ख्याली अनुभवों पर और नींद की दवा पर मरीज को
निर्भर रखते हैं।
मनोविज्ञान ने
मनोरोगों के सैकड़ों नाम दे रखे हैं जैसे- मनोविकार (Mental disorder), व्यग्रता विकार (Anxiety disorder), अवसाद (Depression), विघटनशील विकार (Dissociation
disorder), विघटनशील स्मृति लोप (Dissociative
identity), व्यक्तित्व विकार (Personality
disorder), खंडित मानसिकता (शाइजोफ्रेनिया), एक ध्रुवीय अवसाद, दो ध्रुवीय विकार, (Intermittently explosive disorder), चिंता चित्त विभ्रम, बहुव्यक्ति विकार, मनोविक्षिप्त स्किजोफीनिया, उत्पीड़न भ्रांति, बाध्य विक्षिप्त इत्यादि और भी बहुत सारे नाम हैं। मेरा तो मानना है कि नाम
देने पर आ ही जाया जाये तो दुनिया में जितने भी मनोरोगी हैं उतने प्रकार के मनोरोग
का नाम दिया जा सकता है और फिर जब नाम ही दिये जा रहे हैं तो अलग से नाम क्यों
दिये जायें। मनोरोगी के नाम पर ही रखना ज्यादा उचित होगा। जैसे- राकेश विकार, रमन विकार, प्रीति विकार इत्यादि।
मनोविज्ञान ने जितने
नाम दिये हैं ये मनोविज्ञान के मिथकीय होने को दर्शाता है। मूल रूप से ये सिर्फ एक
बीमारी होती है लेकिन चूँकि प्रति व्यक्ति अलग प्रकृति का होता है इसलिए अलग-अलग
रूप से मनोरोग दृष्टिगोचर होता है।
कोई व्यक्ति ज्यादा
भावुक होगा तो उसके दिल पर ज्यादा घबराहट का प्रभाव होगा। व्याकुलता ज्यादा बनी
रहेगी। उसी प्रतिशत में नाकारात्मकता अपना प्रभाव डालेगी।
कोई व्यक्ति कम
भावुक होगा तो उसको चक्कर ज्यादा आएंगे। चूँकि कम भावुक आदमी ज्यादा वाचाल होता
है। वाकपटु होता है, वो एकांतवासी नहीं होता इसलिए अपनी पीढ़ा को कहीं हद तक वाकपटुता में छिपाने की
कोशिश करता रहता है यानि मन की नाकारात्मकता को लोगों के बीच हँसी ठिठोली में
मिटाने की कोशिश करता रहता है इसलिए वो ज्यादा भावुक व्यक्ति की तरह रोना, चिल्लाना, देर तक मायूसी में डूब जाने से दूर रहता है।
यहाँ प्रति व्यक्ति
का अलग नेचर होता है क्योंकि प्रति व्यक्ति अलग दिमागी कोशिकाओं का इस्तेमाल करता
है। इसी से हमारा दृष्टिकोण तैयार होता है।
यहाँ प्रति व्यक्ति
का दृष्टिकोण इसीलिए अलग होता है क्योंकि प्रति व्यक्ति की मस्तिष्क कोशिकाएँ
भिन्न रूप से सक्रिय होती है।
हम आसान शब्दों में
यूं समझ सकते हैं कि आप एक ही रंग के लिक्विड को भिन्न-भिन्न कलर में विलय करेंगे
तो प्रतिफल कलर भिन्न आएगा। सफेद को काले में मिलाया जाएगा तो प्रतिफल रंग अलग
होगा और अगर नीले में मिलाया जाएगा तो अलग होगा।
इसी प्रकार जब
व्यक्ति मनोरोग का शिकार होता है तो अपनी प्रकृति के अनुसार अलग समस्याएँ
दृष्टिगोचर होती हैं। मनोविज्ञान ने उन्हीं भिन्न दृष्टिगोचर समस्याओं को
भिन्न-भिन्न नाम दे रखे हैं जबकि वास्तविक रूप से समस्या एक ही है उसी प्रकार उसका
समाधान भी एक ही है।
भिन्न मानसिक रोगों
का यथार्थ बस इतना भर है कि चूँकि प्रति व्यक्ति अलग प्रकृति का होता है इसलिए
मनोरोग का प्रतिफल अलग उभरकर आएगा। इसके लिए हमने एक उदाहरण दिया कि एक ही रंग को
अलग-अलग रंगों में डाला जाए वो परिणाम भिन्न आएगा और इसी के साथ एक बात ये जुड़ी हुई है कि
एक ही रंग जो भिन्न रंगों में मिलाया जा रहा है उस एक रंग की मात्रा भी निर्भर
करती है। यानि वह एक रंग किस मात्रा में डाला जा रहा है। आगे जाकर ये बात तब
भलीभाँति समझ में आएगी जब हम समस्या के कारक के सम्बंध में बात करेंगे।
कदाचित हम जान चुके
हैं कि मनोरोग के संबंध में जहाँ तंत्र-मंत्र अंधविश्वास के सिवा कुछ नहीं है, वहीं मनोविज्ञान मूल कारक की जानकारी न होने की बदौलत कयास और मिथकों पर
निर्भर है।
दुनियाभर में जितनी
भी आत्महत्याएँ होती हैं उसमें मोटे तौर पर 95 प्रतिशत आत्महत्या मनोरोगी करते हैं।
मनोरोग की विडम्बना
ये है कि न तो स्वयं रोगी ही भलीभाँति जान पाता है कि मैं किस मुसीबत में घिर चुका
हूँ और न उसके परिजन समस्या की गंभीरता को समझ पाते हैं।
सिर दर्द, चक्कर आना, घबराहट, मितली आना, उदासी, अकारण चिंता में डूबे रहना, नकारात्मकता की बातें करना हमारे समाज में बहुत
गंभीर बात नहीं मानी जाती बल्कि समाज इन लक्षणों को सामान्य रूप में लेने का आदी
हो चुका है और मात्र सलाहभर से इस बीमारी को दूर कर देने का भ्रम सर्वोपरि है।
कोई व्यक्ति चिंता
का रोगी हो चुका है तो समाज के लोग यही मान्यता रखते हैं कि उस व्यक्ति को समझाया
जाये, आत्मविश्वास बढ़ाया जाए या ये माना जाता है कि वह खुद को नियंत्रित करे। इस
गंभीरता को कोई समझना नहीं चाहता कि रोगी कोई नादान नहीं है। वह तुमसे कम समझदार
नहीं है। तुम्हारे दो बोल उसके लिए नए नहीं हो सकते। इन दो बोलों को वह बचपन से
सुनता आ रहा है। जितना तुम उसे समझाने का यत्न कर रहे हो इससे हजार गुना ज्यादा तो
वह खुद को समझा चुका है। लेकिन यहाँ बात समझाने बुझाने की नहीं है। जो समस्या ने
घेर रखा है उसके समाधान की बात है लेकिन अफसोस कि समस्या को न जानकर रोगी को कोई
ऐसा अबोध बालक समझ लिया जाता है जो लालीपोप थमाते ही जादू के जोर से रोना छोड़कर
खुश होने लगेगा। उल्टा रोगी उन समझदार लोगों को समझाना चाहता है कि जो तुम मुझे
समझा रहे हो कि खुश रहना सीखों। सक्रिय रहो, सकारात्मक सोचों, वहम निकालों, दिमाग को शांत रखो। रोगी समझाने वालों से कहना चाहता है कि ये सारी बातें मैं
बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ। इसमें मुझे बताने वाली क्या बात है? अब समस्या ही जब कन्ट्रोल नहीं हो रही तो मैं क्या करूं? जब एक ही बात घण्टों तक जेहन में घूमती रहती है तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ।
सामान्यता होता ये है कि कोई बात हमने सुनी या सोची या कही तो मानसिकता में कहीं
संतोष का भाव उभरता है और हम उस बात से संतुष्ट होकर उस बात से फ्री हो जाते हैं।
फिर किसी अगली बात के लिए मन मस्तिष्क स्वतंत्र रहता है मगर मनोरोगी के साथ समस्या
ये उत्पन्न हो जाती है कि कोई बात उसने कही या सुनी या सोची तो उसके प्रति जो
संतोष का भाव मन से उठना चाहिए वो नहीं उठ रहा है। बात मस्तिष्क में घूमती रहती है
और रोगी को बेचैन करती रहती है। रेागी परेशान हो उठता है। यहाँ तक कि एक बात जो
निंरतर मस्तिष्क में घूम रही है उसके सबब घबराहट उत्पन्न होगी, मितली आएगी, उल्टी की संभावना बनेगी, बाज रोगी को उल्टी आ भी जाएगी। दिमाग में चक्कर
बनेंगे। नकारात्मकता इस प्रकार हावी हो जाएगी कि आत्महत्या को मन करेगा।
कभी सिर इतना भारी
होगा कि दीवार पर पटकने को दिल चाहेगा।
आशा है पाठक
भलीभाँति समझ गये होंगे कि मनोरोगों के प्रति धार्मिक अनुष्ठान जहाँ घोर
अंधविश्वास में डूबे हैं,
वहीं मनोविज्ञान भारी भ्रम का शिकार है। अब बढ़ते हैं मनोरोग के कारक की तरफ।
आखिर एक व्यक्ति
मनोरोगी क्यों बनता है?
एक व्यक्ति जो अच्छी
और कामयाब जिंदगी बसर कर रहा है, एकाएक क्या हो जाता है कि वो मनोरोगों की गंभीर
बीमारी में घिर जाता है?
मनोरोग के कारक
खोज करने पर पता
चलता है कि व्यक्ति की मनःस्थिति के मुख्य रूप से तीन प्रकार होते हैं।
हमने इसको यूं नाम
दिये हैं-
1. अबोध
2. सामान्य
3. प्रौढ़
समूची मानव जाति की
मनःस्थिति के इन तीन प्रकार को समझना बहुत जरूरी है। यहीं से मनोरोग की उत्पत्ति
होती है।
यहां हम तीनों
प्रकृति के कुछ लक्षण लिख रहे हैं।
अबोध- इस प्रकृति के व्यक्ति अबोध यानि मासूम प्रकृति के
होते हैं। सोते समय दिखने वाले सपने इन्हें कभी कभार ही नजर आते हैं। इस प्रकार के लोग अधिकतर पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते
हैं। ये कभी सामान्य वर्ग,
कभी प्रौढ़ वर्ग को कापी करने की कोशिश करते हैं। वस्तुस्थिति को ठीक-ठीक समझने
में नाकाम होते हैं। खुद मे असंतुष्ट रहते हैं लेकिन बहुधा जिंदगी की दौड़ में सफल
या औसत सफल होते हैं। किसी पर विश्वास करते हैं तो 100 प्रतिशत करते हैं।
सामान्य- ये वर्ग मानव सभ्यता के रीढ़ की हड्डी है। मानव
सभ्यता का आधारभूत खंभा है। ये वर्ग सोते समय अधिकांशतः सपनों में डूबा रहता है।
मनःस्थिति के प्रति ये वर्ग पूर्णतः संतुष्ट होता है।
प्रौढ़- ये अबोध वर्ग का विपरीत वर्ग है। प्रायः ये वर्ग
जीवन की दौड़ में नाकाम होता है। ये वर्ग कभी भी कर्मवीर नहीं होता। अपने भाग्य पर
ये 100 प्रतिशत विश्वास करता है। जीवन की किसी भी नाकामी में ये अपनी खराब भूमिका को
स्वीकार नहीं करता तदापि भाग्य और भगवान तथा परिवेश को दोषी ठहराता है। बड़ी-बड़ी असफलता
के बाद दोबारा खड़े होने की जबर्दस्त क्षमता होती है। ये वर्ग अधिकांशतः वाचाल होता
है। वाकपटुता से लोगों के संदेह दूर करने के प्रयास में रहता है। इसके प्रयासों से
दूसरे लोग भले ही संतुष्ट न हो लेकिन ये स्वयं जरूर हो जाता है। भाग्य और भगवान को
दोषी ठहराते समय इसके कंठ में तनिक भी हिचक नहीं होती। यही कारण है इसका जीवन
असफलताओं के बीच गुजरता है। बड़ी असफलताओं के बाद लोगों को फेस करने में इसे कोई
शर्म की फीलिंग नहीं हेाती। अपनी वाकपटुता के कारण ये लोग असफल होने के बावजूद भी
समाज में उचित सम्मान पाने में सफल हो ही जाते हैं।
उपरोक्त तीन प्रकार
की दुनिया में मनःस्थिति पाई जाती है। ये तीनों मनःस्थिति पीढ़ी-दर-पीढ़ी निरंतर एक
यात्रा तय करती है। फलस्वरूप अबोध एक निश्चित समय उपरांत कदाचित कुछ हजार वर्ष
पश्चात सामान्य वर्ग में प्रवेश कर जाता है। सामान्य वर्ग कुछ हजार वर्ष पश्चात
पीढ़ी दर पीढ़ी यात्रा करते हुए प्रौढ़ वर्ग में प्रविष्ट हो जाता है और प्रौढ़ अपनी
यात्रा के अंतिम बिंदु पर पुनः अबोध वर्ग में शामिल हो जाता है। ये प्रक्रिया
निरंतर अग्रसर रहती है और मानव सभ्यता अपनी आयु बढ़ाती जाती है। मानव सभ्यता पहले
से ज्यादा परिपक्व होती जाती है।
उपरोक्त अध्याय में
हमने मनोवृत्ति के प्रकार जाने। अब हम बढ़ते हैं मनोरोगों के उत्पन्न होने की तरफ।
आखिर क्यों एक
स्वस्थ मानसिकता का व्यक्ति अचानक मनोरोगों में घिर जाता है? क्यों एक मेहनती और साकारात्मक सोच का व्यक्ति यकायक इतनी निराशा और नाकारात्मकता
से भर जाता है कि सामान्य जीवन भी व्यतीत नहीं कर पाता। आत्महत्या या उसका प्रयास
करने लगता है।
मनोरोगों की समस्या
बहुत विकट है। इसके लक्षण बड़े आतंककारी होते हैं लेकिन कारक उतना ही मामूली है और
समाधान बहुत आसान है।
मनोरोग पैदा होने का कारण
जब कोई सामान्य या
प्रौढ़ वर्ग का व्यक्ति किसी अबोध वर्ग के सम्पर्क में आता है कदाचित कोई सामान्य
या प्रौढ़ वर्ग का व्यक्ति किसी अबोध के सनिध्य में आता है और यदि वह सामान्य या
प्रौढ़ वर्ग का व्यक्ति उस अबोध से प्रभावित हो जाये, तब ऐसी स्थिति में अबोध का
प्रभाव सामान्य या प्रौढ़ वर्ग की मानसिकता पर प्रभावी हो जाता है।
उदाहरणार्थ
अबोध वर्ग के
व्यक्ति का नाम अशोक और सामान्य या प्रौढ़ वर्ग के व्यक्ति का नाम सुमित है। यदि
सुमित की अशोक से दोस्ती या किसी प्रकार का सम्बन्ध हो जाता है और सुमित अशोक की
शख्सियत से प्रभावित है।
अब यदि सुमित किसी
अन्य व्यक्ति राकेश से अशोक की किसी मामले में बुराई करता है या राकेश किसी मेटर
पर अशोक की बुराई करे और सुमित उस बुराई में हाँ में हाँ मिलायें तो सुमित और
रोकेश दोनों ही मनोरोगों मे घिर जाएंगे। दोनों के दिल और दिमाग का तारतम्य टूट
जाएगा। फलस्वरूप दिल पर घबराहट और सिर में दर्द की समस्या बन जाएगी।
सुमित और राकेश
दोनों में बड़ा मनोरोगी वह बनेगा जो अबोध वर्ग के अशोक के व्यक्तित्व से जितना
ज्यादा प्रभावित था।
साबित हुआ कि किसी
अबोध की बुराई कोई सामान्य या प्रौढ़ वर्ग का व्यक्ति करता है तो वह तत्समय
मनोरोगों की चपेट में आ जाता है। वह व्यक्ति उतना ही बड़ा मनोरोगी बनेगा जितना वह
अबोध के निकट था और उसकी शख्सियत से प्रभावित था।
अबोध की बुराई करने
वाले सभी लोग मनोरोग के शिकार होंगे। कुछ आंशिक तो कुछ गंभीर। आंशिक रेागी वो
बनेंगे जो न तो अबोध के निकटवर्ती थे और न उसके व्यक्तित्व से प्रभावित थे और
गंभीर रोगी वे बनेंगे जो व्यक्तित्व से प्रभावित थे और अबोध ये समझता था कि ये
व्यक्ति मेरा सम्मान करता है और मुझे स्वीकारता है।
लेकिन अबोध का कोई
निकटवर्ती किसी ऐसे व्यक्ति से अबोध की बुराई करता है जो अबोध को जानता ही न हो।
सर्वथा अपरिचित हो तो न अपरिचित पर मनोरोग का कोई प्रभाव पड़ेगा और न उस निकटवर्ती
पर।
कदाचित
यदि अबोध अशोक का
निकटवर्ती सुमित है और सुमित किसी अपरिचित व्यक्ति से अबोध अशोक की बुराई करता है
अशोक के व्यक्तित्व पर प्रश्न चिह्न खड़े करता है तो इस बुराई का अपरिचित पर कोई
प्रभाव नहीं पड़ेगा। अपरिचित की मानसिकता पर मनोरोगों का बल प्रभावी नहीं होगा
क्योंकि अपरिचित ने अबोध अशोक को देखा ही नहीं है इसलिए वह मनोरोगी नहीं बनेगा। जब
अपरिचित नहीं बनेगा तो क्रिया-प्रतिक्रिया के तहत सुमित पर भी इस बैठक का कोई
प्रभाव नहीं पड़ेगा। यानि इस बैठक में सुमित भी मनोरोगों का शिकार नहीं होगा।
पाठक समझ गये होंगे
कि किस कारक के तहत कोई व्यक्ति मनोरोगी बन जाता है।
एक बार फिर विवरण
प्रस्तुत कर देते हैं ताकि पाठकों को रोग के कारक समझने में परेशानी न हो।
मानव की मानसिकता विशेषता
तीन प्रकार की होती है-
अबोध
सामान्य
एवं प्रौढ़
कोई सामान्य या
प्रौढ़ वर्ग का व्यक्ति जब किसी अबोध के सानिध्य में आता है और उसके व्यक्तित्व से
प्रभावित हो जाता है तो अबोध का प्रभाव उस सामान्य या प्रौढ़ की मानसिकता पर हावी
हो जाता है।
तभी वह सामान्य या प्रौढ़
वर्ग का व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से अबोध की बुराई करेगा या बुराई सुनेगा तो वह
बुराईकर्ता मनोरोगों के गंभीर चपेट में आ जाएगा।
उसके दिल और दिमाग
का नाता टूट जाएगा।
दिल पर घबराहट का
साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। सिर में दर्द बनना शुरू हो जाएगा।
नकारात्मकता, निराशा, हताशा बढ़ती जाएगी। दिनचर्या बिगढ़ जाएगी। अब तक जहाँ कार्य करने में आनंद और
संतोष की अनुभूति होती थी। अब वह आनंद और संतोष का भाव सिरे से गायब हो चुका है।
एक प्रकार की घुटन, जी मितलाना, सिर दर्द और चक्कर आने की समस्या बन चुकी है। रोगी परेशान हो जाता है कि मुझे
हो क्या गया? मैं तो अच्छा खासा था। कर्मशील था। कर्म करते हुए बड़ा खुश होता था लेकिन अब तो
कर्म के नाम से ही घबराहट हो रही है। पहले कर्म को लेकर यकायक एक टाइम टेबिल बना
लेता था कि पहले क्या करना है, उसके बाद क्या करना और क्या जरूरी काम है जिसे प्राथमिक
रूप से निपटाना है और क्या गैर जरूरी है जिसे फिलवक्त के लिए टाला जा सकता है।
लेकिन अब तो ऐसे
मंसूबे बनाए नहीं बनाये जाते। दिल घबराने लगता है। कोई प्लानिंग तैयार नहीं होती।
मैं करूं तो करूं क्या?
भीड़ से डर लगने लगता
है। घर से दूर जाने पर डर की अनुभूति होती है कि अचानक कुछ हो गया तो क्या होगा?
दिनचर्या पूरी तरह
से बिगड़ जाती है।
अंततः आत्महत्या को
मन करता है। जीवन के प्रति घोर उदासीनता का भाव जाग्रत हो जाता है। छोटा सा काम
पहाड़ नजर आता है।
पाठकगण समझ चुके हैं
कि मनोरोग कैसे उत्पन्न होता है? मनोरोग की उत्पत्ति का कारण किसी सामान्य या प्रौढ़
वर्ग द्वारा किसी अबोध की बुराई करना है। कोई सामान्य या प्रौढ़ वर्ग का व्यक्ति
किसी सामान्य या प्रौढ़ की बुराई करे तो मनोरोग पैदा नहीं होते हैं लेकिन अबोध की
बुराई करने पर दिल और दिमाग का तारताम्य टूट जाता है।
हमने समस्या के मूल
को जान लिया अब हम बढ़ते समाधान की तरफ।
मनोरोग का उपाय
जिस तरह मनोरोग कोई
शारीरिक दोष नहीं है। किसी शारीरिक दोष के कारण उत्पन्न नहीं हुआ है। सिर्फ किसी
वर्ग विशेष के व्यक्ति पर दोषारोपण के कारण पैदा हुआ है। यानि गलत स्वर की बातचीत
से इस रोग का जन्म हुआ तो इसका समाधान भी बातचीत पर ही निर्भर है।
मनोरोग के उपाय के
लिए किसी दवा किसी सर्जरी की कतई आवश्यकता नहीं है। न दिनचर्या बदलने, न किसी अन्य थैरेपी, न योगा, न संगीत, न खुद को व्यस्त रखने और न सकारात्मकता की थेरेपी अपनाने से इस रोग को दूर किया
जा सकता है।
तंत्र-मंत्र, मंदिर, मजार, विशेष स्थल पर पूजा अर्चना करना, कहीं पेशी पढ़ना, मुकदमें बाजी चलाना, झाड़-फूँक इत्यादि ये सब महा
बकवास के सिवा कुछ नहीं है। जिस तरह धार्मिक स्थलों पर पटकियाँ खाई जाती है, सिर पटके जाते हैं, झूमा और खेला जाता है,
ये सब बेहद खतरनाक है। ये काम तो कोई स्वस्थ व्यक्ति करे तो उसकी हालत खराब हो
जाये और मनोरोगी तो पहले से ही अधमरे होते हैं। यही कारण है कि अनेकानेक मनोरोगी
विभिन्न स्थलों पर पटकी खाते हुए मर जाते हैं। हालांकि इन घटनाओं के बाद उक्त
धार्मिक स्थल की वास्तविकता पर प्रश्नचिह्न लग जाना चाहिए लेकिन हमारे समाज में
अंधविश्वास, अंधा यकीन इस कदर अपने जड़ें जमा चुका है। लगता है जैसे लोगों की नसों में खून
नहीं बल्कि अंधविश्वास दौड़ता है जिससे विलग हो गये तो अमुक व्यक्ति मर ही जाए।
हम बढ़ते हैं समाधान
की तरफ। समस्या व्यक्ति विशेष के विरूद्ध दोषारोपण की बातें करने से पैदा हुई है
इसलिए समाधान हेतु भी विशेष बातें विशेष लोगों से ही कहीं जाएगी।
समाधान के उपाय
अपनाने से पहले रोगी को अपने अरोगी को चिह्नित कर लेना चाहिए। आरोगी हमने उसे कहा
जिससे रोगी ने अबोध की बुराई की या सुनी थी।
सर्वप्रथम रोगी को
अपने आरोगी चिह्नित कर लेना चाहिए।
उदाहरणार्थ-
रोगी सुमित अबोध
अशोक की बुराई संजीव से की थी या संजीव से सुनी थी और हाँ मैं हाँ मिलाई थी। तो
रोगी सुमित का आरोगी संजीव हुआ।
रोगी को चाहिए कि वह
सर्वप्रथम अपने आरोगी को चिह्नित करे।
ये स्मरण करे कि मैंने
अपने अबोध की बुराई किस शख्स से की थी या किस किस शख्स से की थी?
जब आरोगी चिह्नित हो
जाए तो रोगी को आरोगी से मात्र एक वाक्य बोलना है। बस उस एक वाक्य बोलने मात्र से
रोगी के सिर से मनोरोग का भूत उतर जाएगा। आश्चर्यजनक रूप से वह अपनी खोई हुई
मानसिकता प्राप्त कर लेगा। दिल और दिमाग का टूटा हुआ तारतम्य पुनः स्थापित हो
जाएगा। नाकारात्मकता, निराशा, हताशा, उदासीनता, सिरदर्द, चक्कर आना, दिल घबराना, उल्टी आना ऐसे गायब हो जाएंगे मानो गधे के सिर से सींग गायब हो गये हों।
उस वाक्य का नाम
हमने ‘संजीवनी वाक्य’ दिया है।
हर संजीवनी वाक्य का
भाव एक ही है लेकिन स्वरूप हजारों है।
अभी हमें जितने
संजीवनी वाक्य सूझते है, हम यहाँ उल्लेखित कर रहे हैं।
संजीवनी वाक्य
- यहाँ कोई व्यक्ति दूध का धुला नहीं है।
- हर इंसान में कोई न कोई कमी होती है।
- तू न कहे मेरी, मैं न कहूँ तेरी।
- इंसान गलतियों का पुतला है।
- जिसे देखो खुद को तीस मार खां समझता है।
- अपने गिरहबान में कोई झांककर नहीं देखता।
- हर आदमी दूसरे की टांग खींचने में लगा है।
- ऊपर थूकोगे तो मुंह पर गिरेगा।
- इस दुनिया में इमानदार है कौन?
- आदमी का वश चले तो किसी को जीने न दे।
- भगवान दुख देई तो मत पहले हर लेई।
- हर आदमी खुद को चालाक समझता है।
- इंसान की कुछ भी वश की नहीं है।
- खूबी और कमी हर इंसान में होती है।
इत्यादि ऐसे अनेकानेक संजीवनी वाक्य हैं जिनका भाव एक ही होता है।
इनका एक ही भाव ये
है कि इस वाक्य को कहने वाला और सुनने वाला दोनों ही वाक्य के अर्थ के कटघरे में
आते हैं।
जैसे- यहाँ दूध का
धुला कोई नहीं है। तो कहने और सुनने वाला भी दोष के खाने में आ गया। इसी को
संजीवनी वाक्य कहा गया है।
कोई भी मनोरोगी अपने
आरोगी से जैसे ही कोई संजीवनी वाक्य दोहराएगा आश्चर्यजनक रूप से मनोरोगी की
मानसिकता से मनोरोग का दबाव हटने लगेगा।
लेकिन-
अगर किसी मनोरोगी का
एक ही आरोगी रहा है, मनोरोगी ने अपने अबोध की बुराई यदि एक ही व्यक्ति से की है, तब तो उस आरोगी से संजीवनी वाक्य दोहराते ही मनोरोगी मनोरोगों से मुक्त हो
जाएगा।
लेकिन ज्यादातर
मामलों में किसी मनोरोगी के कई सारे आरोगी होते हैं।
तब मनोरोगी के लिए
प्रक्रिया थोड़ी कठिन हो जाती है। हालांकि उपाय वही है कि आरोगियों से संजीवनी
वाक्य का उच्चारण करना लेकिन उसकी विधि निम्न प्रकार है।
मनोरोगी को चाहिए कि
वह अपने आरोगियों को बैठक के क्रम में चिह्नित करे।
यानि मनोरोगी ने एक
बैठक कितने लोगों से अबोध की बुराई की या सुनी है।
मानो रोगी ने एक
बैठक में आकाश, विकास, असलम और आशा से अबोध की बुराई की।
तो इसको बैठक नम्बर
एक लिखकर इसके आगे आरोगियों का नाम लिख लेवें।
रोगी ने अबोध की
बुराई जितनी बैठकों में की है, अपनी याददाश्त पर जोर देते हुए बैठक नम्बर लिखकर उस
बैठक के आरोगियों का नाम लिख लिया जाये।
इतना सब करने के बाद
फिर रोगी हर बैठक के आरोगियों से मुलाकात करे और उनसे संजीवनी वाक्य दोहराये लेकिन
यहाँ मुश्किल ये खड़ी हो जाएगी कि बैठक के सारे लोग एक जगह जमा नहीं मिल पाएंगे।
पहली बैठक के आरोगी
आकाश, विकास, असलम और आशा थे।
यहाँ अनिवार्य है कि
जब ये चारों एक बैठक में जमा हो तभी रोगी संजीवनी वाक्य कहे तो ही मनोरोगों से
मुक्त हो पाएगा मगर चूँकि अब ये चारों एक जगह जमा नहीं मिल पा रहे हैं या कब
मिलेंगे इसकी प्रतीक्षा नहीं की जा सकती।
तो इसका भी बेहतर
उपाय है।
चारों में से कोई भी
एक आरोगी से मुलाकात की जाए। मानो आकाश मिल गया तो रोगी को चाहिए कि वह आकाश से
कोई ऐसी चर्चा छेड़े जिसमें विकास, असलम और आशा का नाम आ सके। किसी भी प्रकार की
चर्चा। बस बाकी सारे आरोगियों के नाम का उल्लेख होना चाहिए। नामों के उल्लेख होने
के बाद रोगी आकाश से संजीवनी वाक्य कह डाले तो उस बैठक क्रमांक का आकाश वाला
मनोदबाव रोगी के सिर से उतर जाएगा।
अब रोगी उसी बैठक के
अगले सदस्य यानि विकास के पास जाये और विकास से भी किसी भी चर्चा से तहत बाकी तीन
आरोगी की नाम की चर्चा करे। यानि किसी भी बातचीत के दौरान आकाश, असलम और आशा के नाम का उल्लेख करे और नाम का उल्लेख करने के तुरन्त बाद
संजीवनी वाक्य कहे। इस प्रकार रोगी के मानसिकता से विकास का मनोदबाव हट जाएगा।
उसके बाद रोगी उस
बैठक के अगले सदस्य असलम से मुलाकात करे और असलम से भी बैठक के बाकी तीनों सदस्य
आकाश, विकास और आशा के नाम का उल्लेख करते हुए संजीवनी वाक्य को दोहराया जाए। इस तरह
रोगी के मन से असलम का मनोदबाव कम हो जाएगा।
अब उस बैठक के आखिरी
सदस्य आशा से रोगी मुलाकात करे और बाकी तीनों आरोगी आकाश विकास और असलम के नाम का
उल्लेख करते हुए संजीवनी वाक्य कहे।
इस तरह रोगी के मन
से एक बैठक का बोझ उतर जाएगा।
इसके बाद अगली बैठक
पर काम करे। यदि अगली बैठक के सदस्य सात है तो रोगी को सभी सदस्यों से मिलते हुए
बाकी सदस्यों के नाम की चर्चा करते हुए संजीवनी वाक्य कहना होगा।
कोई सदस्य अगर फोन
पर उपलब्ध हो पा रहा है। तो फोन पर भी ये प्रक्रिया पूरी की जा सकती है।
इसमें आवश्यक बस यही
है कि एक बैठक के सभी सदस्यों से या तो एक बैठक में संजीवनी वाक्य कह दिया जाए और
यदि ऐसा संभव नहीं है। यदि एक बैठक के सभी सदस्य एक बार में नहीं मिल पा रहे हैं
तो उनसे अलग-अलग मुलाकात करके और बाकी सदस्यों के नाम की चर्चा करके संजीवनी वाक्य
का प्रयोग किया जाए।
चर्चा किसी भी
प्रकार की हो सकती है। चाहे कोई फर्जी चर्चा ही क्यों न करनी पड़े। इस चर्चा के
दौरान अबोध के नाम के जिक्र की कोई जरूरत नहीं है। न ही उस संबंध में कोई पुरानी बात
उखाड़ने की जरूरत है।
आशा है पाठकगण समझ
गये होंगे कि किसी भी रोगी के आरोगी कौन लोग होते हैं, और उनसे किस प्रकार बात करते हुए अपने मनोरोग को दूर करना है।
इस बीच रोगी को
चाहिए कि वह निरंतर अपने अबोध से बातचीत जारी रखे। कई मामलों में ऐसा होता है कि
रोगी का अपने अबोध से अनबन इस हद तक है कि बिल्कुल बातचीत ही बंद है और रोगी किसी
सूरत भी अपने अबोध से बातचीत करना नहीं चाहता।
मनोरोगों के उपाय की
ये कड़ी शर्त है कि वह अपने अबोध से, अपने आरोगियों से निरन्तर बातचीत जारी रखे।
यदि बातचीत जारी
रखते हुए रोगी को अपमान भी महसूस हो रहा है, तब भी उसे ये काम करना पड़ेगा।
आरोगी से बातचीत
करना इसलिए जरूरी है क्योंकि उससे संजीवनी वाक्य बोलना है और उस बैठक के अन्य
आरोगियों के नाम का भी उल्लेख करना है। जब बातचीत ही बंद होगी तो इतना सब काम कैसे
हो पाएगा और जब काम नहीं हो पाएगा तो मनोरोग दूर नहीं हो सकता।
अबोध से कोई विशेष
प्रकार की बात नहीं करना है। न उसके समक्ष आरोगियों के नाम गिनाना है और न संजीवनी
वाक्य बोलना है। अबोध से सामान्यता कोई भी बात कर ली जाए। किसी भी टॉपिक पर। चाहे
क्रिकेट पर बात कर ली जाए या राजनीति पर। चाहे फिल्मों से संबंधित बात हो।
रोगी जब अपने आरोगी
से संजीवनी वाक्य का प्रयोग कर लेवे तो अपने अबोध से कम से कम पाँच मिनट लम्बी बात
किसी भी स्वतंत्र टॉपिक पर जरूर करे।
क्योंकि अबोध का
अंतस रोगी के अंतस में विलय हो जाता है। ये तब से हुआ जब रोगी ने अपने अबोध की
बुराई अपने आरोगियों से की। उस बुराई के बाद रोगी ने अपने अबोध से बातचीत की थी।
उस बातचीत के दौरान ही अबोध का अंतस रोगी के अंतस में विलय हो गया था। तभी से रोगी
को घबराहट और सिरदर्द यानि मनोरोगों की समस्या बन गयी थी।
अब चूँकि रोगी ने
आरोगियों से संजीवनी वाक्य बोल दिया है। बुराई का प्रायश्चित कर लिया है। अबोध का
अंतस अपने अंतस से बाहर निकालने की प्रक्रिया पूरी कर दी है। अतः पुनः रोगी को
अपने अबोध से लहजे से लहजा मिलाकर कम से कम पाँच मिनट बात करना पडे़गी ताकि अबोध
का अंतस या कहो मानसिकता रोगी की मानसिकता से विलग होकर उसे स्वतंत्र कर सके।
आपने जाना कि मनोरोग
किसे कहते हैं।
मनोरोग कोई
भूत-प्रेत नहीं है। न ही शार्टकट के लालच और असुरक्षा की भावना के चलते कोई
मनोरोगी बनता है जैसा कि मनोचिकित्सक बताते हैं। ये सब मिथक है जों उस समय जन्म ले
लेते हैं जब किसी विषय की समुचित जानकारी न हो।
इस पुस्तक के माध्यम
से हमने जाना कि मनोरोग कैसे उत्पन्न होता है और किस प्रकार उसका निदान किया जा
सकता है।
अब हम प्रस्तुत कर
रहे हैं। मनोचिकित्सकों के लिए सलाह कि वो किस प्रकार मनोरोगियों से प्रश्न करें
ताकि किसी मनोरोगी के अबोध का खुलासा हो सके।
मनोरोग के उपाय के
लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि रोगी के अबोध का पता लगाया जाये।
जब तक अबोध का पता
नहीं चलेगा तब तक आरोगियों का पता लगाया नहीं जा सकता।
एक व्यक्ति अपने
जीवनकाल में अनेकानेक लोगों की बुराई-भलाई में शामिल रहता है। उसने कब किसके
व्यक्तितत्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया उसे स्वयं भी पता नहीं चलता।
दरअसल हम किसी के
व्यक्तित्व पर टीका टिप्पणी करते हैं तो हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं होता कि हम किसी
व्यक्ति विशेष की बुराई कर रहे हैं बल्कि उस समय हमारी इमानदाराना अनुभूतियाँ होती
हैं। हम समझते हैं कि हम किसी के सम्बंध में कुछ कह रहे हैं तो वही कह रहे हैं जो
उक्त व्यक्ति के अंदर वास्तविक रूप से कमी पाई जाती है।
और निःसंदेह कमी हर
व्यक्ति में होती है लेकिन जब कोई हमारा अनादर करे, उपेक्षित करे या नजरअंदाज
करे या किसी भी प्रकार से हमें चोट पहुँचाये तो हम अक्सर उस व्यक्ति के खिलाफ मुखर
हो जाते हैं और जब तक हम किन्हीं लोगों के बीच दिल की भड़ास न निकालें तब तक हमें
चैन ही नही पड़ता। हमें पता ही नहीं है कि अगर हमारे उन निकटवर्तियों में जिनके
खिलाफ हम भड़ास निकाल रहे है, उनमे यदि कोई अबोध है तो हम मनोरोगों की भीषण चपेट
में आ जाने वाले है जिसके बाद हमारी जिंदगी एक दर्दनाक अजाब बनकर रह जाएगी। हम
अपनी सामान्यता खो बैठेंगे और दर्द के अथाह सागर में इतने गहरे तक डूब जाएंगे कि
फिर उससे उबरना बड़ा मुहाल हो जाएगा। हम
चीखेंगे चिल्लाएंगे, आत्महत्या के प्रयास करेंगे। हमारी सामान्य जीवनशैली तो मानों अतीत का एक
पन्ना बनकर रह जाएगी, निराशा और नकारात्मकता हमारी मानसिकता में अपना घर बना लेगी। ये सबकुछ हम उस
समय नहीं सोचते हैं जब अपने अबोध के खिलाफ हम किन्हीं लोगों के बीच दिल की भड़ास
निकाल रहे होते हैं।
ध्यान देने योग्य
बात है कि हम जब किसी व्यक्ति की किन्हीं कमियों को उजागर कर रहे होते हैं तो
आश्चर्यजनक रूप से उस व्यक्ति की मानसिकता हमारी मानसिकता में प्रविष्ट हो जाती
है। हमने जिस व्यक्ति की बुराई की यदि वो सामान्य या प्रौढ़ वर्ग का है तब तो हमारी
मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं होता है क्योंकि सामान्य या प्रौढ़ वर्ग की
मानसिकता एक परिपक्व मानसिकता है। एक परिपक्व मानसिकता दूसरी परिपक्व मानसिकता में
प्रवेश करती है तो वहाँ कुछ भी परिर्वतन नहीं होता है। स्थिति ज्यों की त्यों रहती
है लेकिन जब हम किसी अबोध की बुराई करते हैं तो अबोध की मानसिकता जो कि अपरिपक्व मानसिकता
है। जब किसी सामान्य या प्रौढ़ वर्ग में प्रविष्ट होती है तो वहाँ भारी परिवर्तन
होते हैं।
अबोध की मानसिकता
किसी सामान्य या प्रौढ़ वर्ग में विलय होकर सारे समीकरण बदल डालती है।
चूँकि सामान्य वर्ग
के व्यक्ति का दिल-दिमाग के तारताम्य के समीकरण अलग होते हैं और अबोध में दिल
दिमाग के बीच के संबंध अलग।
सामान्य वर्ग के दिल
का सीधा संबंध दिमाग के केन्द्र से होता है। सामान्य वर्ग का व्यक्ति हर बात को
अच्छे से अनुभूत करता है। वह स्पष्ट होता है कि मुझे किस बात पर क्या स्टैण्ड लेना
है और अपने स्टैण्ड के प्रति पूर्ण रूपेण संतुष्ट होता है। कोई भी संशय का भाव
नहीं होता। जबकि अबोध वर्ग के व्यक्ति का दिल साइलेंट होता है।
उसके दिल दिमाग का
तारताम्य सीधे जुड़ा हुआ नहीं होता। वह किसी भी बात के प्रति पूरे जीवनकाल संतुष्ट
नहीं रहता।
एक मामूली उदाहरण
लें कि कोई जोक सुनने के बाद हँसना ही चाहिए कोई अबोध पूरे जीवनकाल भी इस बात के
प्रति संतुष्ट नहीं होता।
जबकि सामान्य या
प्रौढ़ वर्ग का व्यक्ति कोई जोक सुनते ही यदि हँसी आ रही है तो हँसेगा और नहीं आ
रही है तो नहीं हसेगा। यदि किसी का दिल रखने के प्रति हँसना पड़ा तब भी उसका
स्टैण्ड साफ होगा कि हँसना तो नहीं चाहता था मगर जोक सुनाने वाले के लिहाज की
खातिर हँसना पड़ा। यानि जो भी प्रतिक्रिया होगी वह कम से कम खुद उस सामान्य वर्ग के
व्यक्ति की नजर में स्पष्ट होगी लेकिन इसके उलट अबोध का स्टैण्ड अपनी नजर में कभी
स्पष्ट नहीं होता।
वो हंसेगा तो इसलिए
हंसेगा कि उसे पता है कि चुटकुले सुनने के बाद हँसा जाता है या चुटकुला सुनाने
वाला प्रभावशाली लहजे का मालिक है। इसलिए हँसना ही चाहिए। अबोध के मन में स्पष्ट
भाव कभी जन्म नहीं लेता।
ये अबोध वर्ग हमारे
समाज में स्त्री-पुरुषों में वन थर्ड पाए जाते हैं। हर तीसरा व्यक्ति अबोध वर्ग से
होता है।
मानव सभ्यता में तीन
प्रकार की मानसिकता पाई जाती है। एक अबोध वर्ग, दूसरा सामान्य और तीसरा प्रौढ़।
ये वर्ग पीढ़ी दर
पीढ़ी अपनी यात्रा तय करते हुए हजारों वर्ष पश्चात अपना वर्ग बदलकर दूसरे वर्ग में
प्रवेश कर जाता है। अबोध वर्ग हजारों वर्ष पश्चात सामान्य वर्ग में प्रवेश कर जाता
है। सामान्य वर्ग हजारों वर्ष की यात्रा तय करके प्रौढ़ वर्ग में प्रवेश कर जाता है और प्रौढ़ वर्ग पुनः
अबोध वर्ग में प्रविष्ट हो जाता है।
हर पुरुष अबोध की
पुत्री अबोध होती है और हर महिला अबोध का पुत्र अबोध होता है।
इसी तरह हर पुरुष
सामान्य की पुत्री सामान्य होती है और स्त्री सामान्य का पुत्र सामान्य वर्ग से
होता है।
यही नियम प्रौढ़ पर
भी लागू होता है।
कदाचित पिता का हृदय
पुत्री के हिस्से में आता है और पिता का मस्तिष्क पुत्र के हिस्से में आता है।
हृदय ही वर्ग को
स्थापित करता है। हृदय ही शरीर का नियंत्रक होता है। मेरे अनुभवानुसार मस्तिष्क
शरीर का एक अंग मात्र होता है लेकिन हृदय शरीर का नियंत्रक होता है।
यदि हृदय और
मस्तिष्क को अनुपात में बांटा जाए तो मस्तिष्क के हिस्से में वन थर्ड आएगा और हृदय
का अनुपात टू थर्ड होगा।
एक पुरुष की जब अपनी
संतान में भागीदारी टू थर्ड की होती है तो संतान पुत्री पैदा होती है। और जब एक
पिता की अपनी संतान में भागीदारी वन थर्ड होती है तो संतान पुत्र पैदा होती है।
इसी तरह स्त्री की
हिस्सेदारी अपनी संतान में टू थर्ड की होती है तो पुत्र पैदा होता है और वन थर्ड
की होती है तो पुत्री पैदा होती है।
यानि किसी भी पुत्र
के अंदर टू थर्ड जीनोम अपनी माँ के होते हैं और वन थर्ड जीनोम अपने पिता के होते
हैं। इसी तरह किसी भी पुत्री में टू थर्ड जीनोम अपने पिता के होते हैं और वन थर्ड
अपनी माँ के होते हैं।
मैं इस खोज से पूरी
तरह सहमत हूँ कि स्त्री के पास सिर्फ पुत्र उत्पन्न करने के क्रोमोसोम होते हैं
उसके बावजूद मेरे पास तर्क है कि पुत्र और पुत्री के उत्पन्न होने के लिए पूरी तौर
पर जिम्मेदार स्त्री ही होती है। पुरुष कभी भी पुत्र और पुत्री के उत्पन्न होने के
लिए जिम्मेदार नहीं होता।
ये चैंकाने वाला
तथ्य जरूर है मगर यथार्थ से जुड़ा है।
पुत्र और पुत्री के
लिए क्रोमोसोम संभोग प्रक्रिया के दौरान ही तय हो जाते हैं। यदि स्त्री का समर्पण
भाव अच्छा होगा, यदि स्त्री संभोग क्रिया के दौरान अपने व्यवहार से पुरुष को प्रसन्न कर देती
है तो पुरुष का वन थर्ड ही अनुपात संतान में विलित हो पाता है यानि ऐसी स्थिति में
पुत्र की प्राप्ति होगी और यदि स्त्री के समर्पण भाव में कमी है और संभोग क्रिया
के दौरान पुरुष स्त्री के व्यवहार से खिन्न है तो पुरुष का अनुपात टू थर्ड हो जाता
है और ऐसी स्थिति में पुत्री की प्राप्ति होती है।
पुरुष जब खिन्न होता
है तब उसके जीनोम ज्यादा यानि टू थर्ड जागते हैं और जब प्रसन्न होता है तब
निश्चितंता में चला जाता है। ऐसी अवस्था में जीनोम वन थर्ड ही जागते हैं।
इस प्रकार हमने जाना
कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी अबोध सामान्य और प्रौढ़ वर्ग की एक अनवरत यात्रा चलती रहती है।
अबोध एक निश्चित
समयावधि पश्चात सामान्य वर्ग में और सामान्य से प्रौढ़ में और प्रौढ़ से पुनः अबोध
में अपनी यात्रा को जारी रखता है। इस दौरान मानव सभ्यता की उम्र बढ़ती जाती है।
मेरे पिता की उम्र यदि तीस लाख वर्ष हुई तो मेरी उम्र तीस लाख तीस वर्ष हुई और
मेरी संतान की उम्र तीस लाख साठ वर्ष हुई।
इस प्रकार मानव
सभ्यता पुरानी होती जा रही है। यही कारण है कि मानव सभ्यता पहले से अधिक समझदार और
परिपक्व हो रही है। पहले की तुलना में आज चीजों को समझने का माद्दा अधिक है।
मानव सभ्यता के
खोजियों ने इसे लगभग तीस लाख वर्ष पुराना बताया है। क्या कारण है कि विज्ञान की
उत्पत्ति अब से महज दो हजार वर्ष पूर्व हो सकी। यानि मानव पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक
परिपक्व हो रहा है। उसकी मानसिकता सुदृढ़ हो रही है। चीजों को समझने की शक्ति पैदा
हो रही है।
इधर विगत दो सौ
वर्षों से विज्ञान ने चमत्कार करके रख दिया है। कुदरत की जो बारीकियाँ पहले समझ में
नहीं आती थीं, अब भलीभाँति समझ में आने लगी है। मानव प्राकृतिक गुत्थियाँ समझता चला जा रहा
है और प्रकृति से लाभ उठाता जा रहा है। आज सूरज की रोशनी हमें बिजली देने लगी है।
ये विचार लाख दो लाख साल पहले क्येां नहीं आया। क्यांकि मानव इतना पुराना नहीं हुआ था कि इन विचारों के सपने देख सकता और उन्हें
साकार करने के प्रति यत्न कर सकता।
मेरा एक मोटा अनुमान
बताता है कि मानव सभ्यता वर्तमान समय मेंं अपनी जवानी से गुजर रही है।
जब मानव गुफाओं में
रहता था और नंगा रहता था। कच्चा मांस और कच्ची सब्जियाँ खाता था, वो समय मानव का बाल्यकाल था। मानव अपना जीवन जीता हुआ बाल्यकाल से किशोर उम्र
में प्रविष्ट हुआ। किशोर उम्र में मानव सभ्यता ने तमाम नये प्रयोग किये। कपड़े बुनना
और उन्हें पहनना सीखा, संवाद कायम किया, लिपि तैयार की, पढ़ना लिखना सीखा। सामाजिक कानून तैयार किये। राजा-प्रजा का दस्तूर चलन में
आया। विभिन्न धर्म बना डाले। पब्लिक को मूर्ख बनाना सीखा। ईश्वर का भय पैदा करके
शासन करने के कारगर हथकण्डे की खोज की।
चूँकि आज मानव
सभ्यता भरपूर जवानी में कदम रख चुकी है। जिस तरह जवानी में व्यक्ति अपनी भरपूर
ताकत का स्वामी होता है, उसी तरह आज मानव सभ्यता यानों में उड़कर और दुनिया के किसी कोने से किसी भी
कोने में पलभर में सम्पर्क स्थापित करके अपनी शक्ति के स्वामी होने की दलील पेश कर
रही है।
अभी मानव सभ्यता की
उम्र बढ़ेगी। मानव सभ्यता यौवन से अधेड़ ती तरफ बढ़ेगी। अभी विज्ञान निरंतर तरक्की
करेगा। कम से कम अधेड़ उम्र तक तो विज्ञान तेजी से तरक्की करेगा।
उसके बाद मानव
सभ्यता वृद्धावस्था की तरफ बढ़ेगी।
विज्ञान की गति
स्थिर होगी।
मानव सभ्यता का
बुढ़ापा पुराना होगा तथा जर्जर होगा। चूँकि वृद्धावस्था, बाल्यकाल का पुनार्गमन होता है तो निश्चित रूप से मानव का चैतन्य मन लुप्त हो
जाएगा और मानव पुनः बंदर बन जाएगा।
ये खुदी, ये होश खत्म हो जाएगा। चीजों को समझने की जो शक्ति आयी है, वो चली जाएगी। एक वक्त ऐसा आएगा जब मानव कारों को या किसी भी विज्ञान प्रदत्त
वस्तु को घूर-घूरकर देखेगा कि ये क्या बला है?
होश मिट जाएंगे।
चैतन्य मन का लोप हो
जाएगा।
मानव पुनः नंगा रहना
शुरू कर देगा और पुनः कच्चे मांस और कच्चे खाद्यान्न पर निर्भर हो जाएगा।
तमाम फलसफे और सूत्र
बताते हैं कि जो चीज जहाँ से शुरू होती है वहीं पर उसका अंत होता है।
मानव सभ्यता यदि
बंदर का विकासवाद है तो निश्चित ही इसका अंतिम बिन्दु बंदर ही होगा।
जिस तरह एक बीज अपनी
यात्रा बीज से शुरू करता है, फिर वह अंकुरित होता है और पौधा बनता है, यात्रा चलती रहती है,
पौधा पेड़ बनता है, यात्रा जारी रहती है,
पेड़ पर फल आता है और इस यात्रा का अंतिम बिन्दु यानि फल पकता है और इसमें फिर
वही बीज तैयार हो जाता है। जहाँ से इसने यात्रा शुरू की थी।
यानि बीज से यात्रा
शुरू होकर बीज पर ही स्थिर होती है।
इसी तरह अनेकानेक
उदाहरण हैं। पानी का उदाहरण लो। पानी की क्रिया वाष्पित होने से शुरू होती है।
पानी अपना रूप परिवर्तित करके वाष्प बन जाता है, वाष्प ऊपर उठती है, वाष्प बादल में परिवर्तित हो जाती है और यात्रा के अंतिम चरण में पुनः बादल
पानी में परिवर्तित हो जाता है।
पृथ्वी अपने पहले
क्षण में जिस स्थान पर होती है, परिक्रमा के अंतिम क्षण में भी उसी स्थान पर होती
है।
इस प्रकार एक दिन
मानव पुनः बंदर बन जाएगा। उसके होश, खुदी और चेतन्य मन विलुप्त हो जाएगा।
धार्मिक स्थलों का
उपयोग मानव और तमाम प्राणी बारिश और धूप से बचने के लिए करेंगे। मानव का संवाद
समाप्त हो जाएगा। ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी मगर कुदरत जिंदा रहेगी और अपना निरंतर
सफर तय करती रहेगी।
कुदरत तब भी थी जब
ईश्वर नहीं था। और कुदरत तब भी रहेगी जब ईश्वर नहीं होगा। कुदरत शाश्वत है। ईश्वर
का जन्म मानव के संवाद व्यवस्था के बाद हुआ था। मानव के संवाद व्यवस्था के खत्म हो
जाने के बाद ईश्वर भी मर जाएगा।
हम जिक्र कर रहे थे
मनोचिकित्सकों के लिए उस सलाह का जिसमें वे मनोरोगी के अबोध और उसके आरोगियों की
पहचान कर सके।
मनोचिकित्सक द्वारा
चिकित्सा की विधि
मनोचिकित्सक अपने
केबिन में बैठा है। मनोरोगी भीतर प्रविष्ट होता है।
सामान्यता रोगी के
साथ उसके परिजन या अन्य लोग भी भीतर आ जाते हैं।
मनोचिकित्सक को
चाहिए कि सर्वप्रथम रोगी के साथ के लोगों को केबिन से बाहर करे।
डाक्टर के सामने
सिर्फ रोगी होना चाहिए।
डाक्टर रोगी से
प्रश्न करे- ‘‘तुम्हें क्या समस्या है?’’
रोगी बताएगा- ‘‘मेरा दिल घबराता है, सिर में दर्द रहता है। उल्टी आती है, घबराहट बहुत होती है, कहीं भी मन नहीं लगता। उन
उखड़ता है, निराशा और हताशा स्थायी हो गयी है। आत्महत्या को मन करता है। भीड़ को देखकर डर
लगता है।
ऐसी अनेकानेक बातें
हैं जो मनोरोग का लक्षण हैं। रोगी अपनी समस्या बताएगा।
अब डाक्टर को अगना
प्रश्न करना चाहिए- ‘‘ये समस्या कब से है आपको?’’
रोगी समय बताएगा- आठ
दिन से कि पन्द्रह दिन से कि महीने से कि दो महीने से।
डाक्टर कहे- ‘‘दिमाग पर जोर देकर बताओ कि जब अचानक तुम्हें दिल की घबराहट की समस्या पैदा हुई
थी, उससे कुछ देर पहले या एकाध दिन पहले तुमने किसी ऐसे व्यक्ति की बुराई की या
सुनी थी जिसको तुम बहुत पसंद करते थे। जिसके व्यक्तित्व से तुम प्रभावित थे। जिसका
व्यक्तित्व तुम्हारे ऊपर हावी रहा है- वो कोई भी हो सकता है, तुम्हारी पत्नी भी हो सकती है, पिता भी हो सकता है, बहन हो या कोई अन्य परिजन, कोई रिश्तेदार या कोई मित्र?’’
जब रोगी दिमाग पर
जोर देगा तो उसे वह घटना जरूर याद आएगी कि
किसी विशेष व्यक्ति जो उसके दिल के बहुत करीब रहा था, उसने उसकी किसी अन्य से बुराई की या बुराई सुनने के बाद हाँ में हाँ मिलाई और
साथ में दो बातें अपनी भी मिला दी थीं।
रोगी बताएगा- ‘‘हाँ वह फलां व्यक्ति था, मैंने उसकी बुराई की या सुनी थी।’’
डाक्टर- ‘‘उसका नाम?’’
रोगी- X
डाक्टर को चाहिए कि
वह अपने पेड पर अबोध लिखने के बाद उक्त रोगी के अबोध का नाम X लिखे दे।
डाक्टर पुनः पूछे- ‘‘इस X के भाई या माँ है? यदि अबोध पुरुष है और अगर अबोध स्त्री है तो पूछे- इस एक्स की बहनें और पिता
हैं?’’
रोगी तथ्यानुकूल
उत्तर देगा। यदि हैं तो डाक्टर कहे- ‘‘क्या उनसे तुम्हारे कोई संबंध हैं, तुम्हारी बातचीत होती है, क्या वह भी तुम्हारे ज्यादा निकट हैं? क्या वह तुम्हारे कम निकट है, क्या वह तुम्हें उचित सम्मान देते हैं। क्या वे तुमसे
या तुम उनसे प्रभावित रहे हो? क्या तुमने कभी उनकी बुराई की या बुराई सुनी?
यदि रोगी अपने अबोध
के भाई या महिला अबोध की बहनों से बातचीत करना स्वीकारता है तो डाक्टर को चाहिए कि
वह पेड़ पर अबोध के नीचे अबोध द्वितीय करके उनके नाम लिख दे।
फिर डाक्टर पूछे- ‘‘तुमने कितनी बैठकों में एक्स की बुराई की और क्रमवार उन बैठकों के आरोगियों का
नाम बताओ?’’
रोगी बताएगा।
डाक्टर को चाहिए वह बैठक
नम्बर लिखकर उन आरोगियों के नाम अंकित करे।
रोगी को चाहिए कि वह
याददाश्त पर जोर देकर एक-एक बैठक को याद करे जिसमें एक्स के व्यक्तित्व पर प्रहार
किये गये थे।
यदि अभी रोगी को
सबकुछ याद नहीं आ पा रहा है तो वह अगले टाइम सबकुछ लिखकर लाने का डाक्टर से वादा
करे।
डाक्टर रोगी से कहे-
‘‘तुम अगले टाइम आओ- इस बीच बहुत ध्यान से एक-एक बैठक को याद करो और उसके
आरोगियों को याद करो। एक कागज पर बैठक क्रम लिखकर उसके आगे आरोगियों के नाम लिखो।
जब रोगी ये सब काम
कर ले। याद करके बैठक क्रम और आरोगियों के नाम लिख ले तब समझो आधी समस्या का
निस्तारण तो हो चुका। अब केवल उपक्रम का निर्वहन करना है और रोगी पूर्ण रूपेण
स्वस्थ्य हो जाएगा।
हम पीछे लिख आये हैं
कि किस प्रकार रोगी अपने आरोगियों से संजीवनी वाक्य कहे।
यदि आरोगी एक ही है, तब तो समस्या गंभीर नहीं है। बस उस आरोगी के पास जाना है या फिर फोन पर
सम्पर्क करना है और किसी भी प्रकार की चर्चा छेड़कर कोई भी संजीवनी वाक्य कह देना
है।
संजीवनी वाक्य कहते
ही रोगी की मानसिकता में तेजी से बदलाव होंगे। मानसिकता अपनी मूल स्थिति की तरफ
वापस होगी। अबोध का विलय मानसिकता से दूर हो जाएगा और खो चुकी मानसिकता प्राप्त हो
जाएगी।
अपने आरोगी से
संजीवनी वाक्य कह देने के बाद रोगी को चाहिए कि वह अपने अबोध से कम से कम पाँच
मिनट बात करे। बात किसी भी टॉपिक पर हो सकती है और न वहाँ कोई विशेष वाक्य बोलने
की शर्त है।
डाक्टर को चाहिए कि
वह रोगी को मनोरोग दूर करने की विधि बताए कि किस प्रकार एक बैठक के आरोगियों से
बात करना है और संजीवनी वाक्य कहना है। चूँकि एक बैठक के सभी आरोगी एक जगह जमा
मिलना मुश्किल हैं। इसलिए एक बैठक के एक-एक आरोगी से सम्पर्क करके किसी भी चर्चा
के तहत बाकी आरोगियों के नाम का उल्लेख करके संजीवनी वाक्य कहना है।
मगर यहाँ बड़ी
मुश्किल खड़ी हो जाती है। ये कहना तो बेहद आसान है कि एक बैठक के किसी भी आरोगी से
सम्पर्क करके बाकी आरोगियों के नाम का उल्लेख करो और संजीवनी वाक्य कहो मगर करना
बेहद कठिन है।
मैंने जितने भी
मनोरोगियों को ठीक किया है और उससे पहले मैंने जब अपने मनोरोग दूर किये थे तो यही
दुविधा आन खड़ी हुई थी कि आरोगियों के बीच क्या चर्चा की जाए जिससे बाकी आरागियों
के नाम आ जायें और संजीवनी वाक्य कह दिया जाए।
वह चर्चा छेड़ते हुए
अजीब दुविधा का सामना करना पड़ता है। ऐसा लगता है कि सामने वाला हमें पागल और सनकी
समझेगा क्योंकि बगैर किसी टॉपिक के जबरन एक टॉपिक पैदा किया जा रहा है और जबरन
चर्चा को आगे बढ़ाया जा रहा है।
सामने वाला यही
सोचता रह जाता है कि आखिर इस बात का उद्देश्य क्या है? इसलिए रोगी चाहकर भी किसी एक आरोगी से बाकी आरोगियों के नाम और संजीवनी वाक्य
नहीं कह पाता और इस प्रकार मनोरोग दूर नहीं हो पाते।
लेकिन इसका भी उपाय
है।
ये सच है कि दुनिया
की कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका उपाय न हो।
इसीलिए हमने यहाँ
डाक्टर का किरदार पैदा किया। हालांकि हमारी इस थेरेपी से खुद रोगी ही खुद को ठीक
कर सकता है लेकिन आरोगियों के संबंध में रोगी खुद को पूर्णता असमर्थ पाता है। अतः
डाक्टर का किरदार होना बेहद जरूरी है।
डाक्टर इस समस्या से
भलीभाँति निपट सकता है।
डाक्टर को चाहिए कि
वह सभी आरोगियों को अपने केबिन में इकट्ठा कर ले।
डाक्टर के बुलावे पर
सब आ जाएंगे। यदि ये बुलावा रोगी नहीं दे पाता है कि फलां तारीख को डाक्टर के पास
चलना है, ये बुलावा देने में यदि रेागी को संकोच हो रहा है तो डाक्टर को चाहिए कि वह
अपने नंबर से आरोगियों को फोन करे और एक निश्चित समय सबको इकट्ठा करे।
यदि कोई आरोगी आऊट ऑफ
स्टेशन है तो बाकी आरोगी जो उपलब्ध हो जा रहे हैं उन्हें बुला ले।
सबको केबिन में जमा
करे।
रोगी भी मौजूद हो।
अबोध का वहाँ होना कतई जरूरी नहीं है।
आरोगी और रोगी को
जमा करने के बाद डाक्टर चर्चा छेड़े। डाक्टर को कोई फर्जी चर्चा छेड़ने की कोई जरूरत
नहीं है। बल्कि आरोगियों को मनोरोग की जानकारी दे कि किस प्रकार एक भला चंगा
व्यक्ति मनोरोगों का शिकार हो जाता है।
फिर बताए कि किस
प्रकार आरोगियों के बीच संजीवनी वाक्य कह देने से मनोरोग को दूर किया जा सकता है।
इस चर्चा में ही
रोगी का मनोरोग दूर करने की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। ये जरूरी नहीं है कि रोगी
अपने मुंह से कुछ बोले। रोगी को वहाँ संजीवनी वाक्य कहना जरूरी नहीं है। जब डाक्टर
बोल रहा है और सब आरोगी तथा रोगी सुन रहे हैं और अपनी मूक स्वीकृति दे रहे हैं तो
इसका प्रभाव भी वैसा ही होगा जैसा रोगी को खुद अपने द्वारा संजीवनी वाक्य आरोगियों
से बोलना।
यदि इस मीटिंग में
कोई एक या दो आरोगी शामिल नहीं हो पाये हैं तो डाक्टर को चाहिए कि वह मीटिंग के
दौरान उस आरोगी से फोन पर सम्पर्क करे और आन स्पीकर करके पहले सभी आरोगियों से तथा
रोगी से हाय हैलो कहलवाये।
इस तरह आऊट ऑफ
स्टेशन आरोगी यहाँ मौजूद आरोगियों से और रोगी से भलीभाँति जुड़ सकेेगा यानि उसका
ध्यान आकृष्ट हो सकेगा।
उसके बाद डाक्टर को
चाहिए कि वह रोगी से माइक पर संजीवनी वाक्य कहलवाए। इस प्रकार रोगी के मन से उस
आरोगी का भी मनोदबाव उतर जाएगा।
इतना काम होते ही
रोगी अपनी मानसिकता और भारी बदलाव महसूस करेगा। दिलो-दिमाग से बोझ उतरता मालूम
पड़ेगा।
फिर बाद में रोगी को
चाहिए कि वह कम से कम पाँच मिनट अपने अबोध से बात कर ले।
ये बात रोगी अबोध से
उसके स्थल पर जाकर कर सकता है। अबोध को मीटिंग में शामिल करना बिल्कुल जरूरी नहीं
है और न ये जरूरी है कि मीटिंग की चर्चा के दौरान अबोध का नाम आये।
मीटिंग में डाक्टर
केवल मनोरोगों की चर्चा करे। चूँकि आरोगियों से संजीवनी वाक्य कहने के लिए किसी न
किसी चर्चा की जरूरत पड़ती है। अतः बेहतर है डाक्टर आरागियों को मनोरोगों की
जानकारी दे और संजीवनी वाक्य के बारे में बताए।
डाक्टर द्वारा किया
गया ये उपक्रम रोगी को क्षणभंगुर में मनोरोगों से बाहर ले आएगा। वरना इतना काम
करने में रोगी को महीनों का समय गुजर जाएगा। मनोरोगों की भरपूर जानकारी होने के
बाद भी वह आरोगियों से संजीवनी वाक्य सही तरह से कह पाए, इसमें भी संदेह है।
डाक्टर को चाहिए कि
वहाँ अगली मीटिंग में दूसरी बैठक के आरोगियों से मीटिंग करे।
यदि दूसरी बैठक के
आरोगी भी पहली बैठक के ही आरोगी हैं तो इसको एक ही बैठक माना जाएगा और यदि दूसरी
बैठक के आरोगी और पहली बैठक के आरागियों में थोड़ी सी भिन्नता है यानि मानो पहली
बैठक के पाँच आरोगी है, दूसरी बैठक के भी पाँच या छः या चार है और उनमें तीन पहली बैठक वाले हैं तो
डाक्टर को चाहिए कि दूसरी बैठक वाले अन्य दो तीन आरोगियों को भी एक ही मीटिंग में
बुला ले। इस तरह एक ही बार सब आरोगियों का उपक्रम किया जा सकता है।
लेकिन रोगी विशेष
ध्यान दे-
मनोरोगों की सच्चाई
समझने के बाद रोगी को चाहिए सबसे पहले वह फालतू की सोच दिमाग से निकाल दे।
जैसे- मेरे ऊपर
भूत-प्रेत का साया है, मेरा वशीकरण हो चुका है, फलां ने ताबीज-गण्डा करवा दिया है।
या-
मैं गैस का मरीज हूँ
इसलिए मनोरोगी बना, गैस दिमाग पर चढ़ जाती है और सिर भारी, दर्द और घबराहट बढ़ जाती है।
मेरे सिर में कभी
चोट लग गयी थी इसलिए ऐसी अवस्था बन गयी है।
मैं जिन्दगी में
लूजर साबित हुआ हूँ इसलिए मनोरोगों की चपेट में आ गया।
असुरक्षा की भावना
ने मुझे मनोरोगी बना दिया।
पत्नी/पति के झगड़े, घर में शांति न रहने की वजह से मनोरोगी बना।
मेरा लगातार शोषण
हुआ इसलिए मनोरोगी बना।
इत्यादि बहुत से वहम
रोगी अपने जेहन में पालते है। ऐसा कोई मनोरोगी नहीं होगा जो मनोरोगों को लेकर किसी
न किसी भ्रांति का शिकार न हो।
सबसे खतरनाक और
जानलेवा भ्रांति भूत-प्रेत है। कोई भी अंधविश्वासी व्यक्ति जब इस भ्रांति का शिकार
हो जाता है तो उसे इस भ्रांति से बाहर निकालना निहायत ही मुश्किल काम है बल्कि कई
मामलों में असम्भव भी है।
क्यांेकि ये
भ्रांतियाँ या वहम अंधविश्वासी के अनुभवों का हिस्सा बन जाते हैं। कोई भी व्यक्ति
अपने अनुभवों पर पूरा यकीन रखता है। तब उससे कोई कितना भी कहे कि ऐसा कुछ भी नहीं
है। जो तुम सोचते हो, वो खामख्याली है, उसका कोई आधार नहीं है तो अमुक व्यक्ति मानने को तैयार ही नहीं होगा।
जो उसने प्रगाड़
अनुभव कर रखे हैं और उसके विश्वास कायम हो चुके हैं, उनको भेदना जैसे मानो
नामुमकिन है।
वह समझाने वाले को
मूर्ख समझता है और कहना चाहता है कि तुम वहाँ नहीं पहुँच पा रहे हो, जहाँ मैं हूँ।
मेरी वास्तविकता तक
पहुँचना तुम्हारे वश की बात नहीं है इसलिए मुझे समझाना बंद करो, मैं कोई भोला नहीं हूँ।
ये शत-प्रतिशत सच है
कि कोई भी मनोरोगी तब तक उक्त किताब के सूत्रों का लाभ नहीं उठा सकता जब तक वह
अपना चिकित्सक खुद नहीं बनेगा। दिमाग से वहम और भ्रांतियाँ नहीं निकालेगा और
मनोरोगों के यथार्थ के धरातल पर नहीं आएगा।
पीछे हम जो मनोरोगों
के उपाय प्रस्तुत कर आये हैं, वह कम गंभीर मनोसमस्या और अधिक गंभीर मनो समस्या के
लिए थे।
अब जो प्रस्तुत करने
जा रहे हैं वो भीषण मनोरोगों से संबंधित है। जिससे लाभ वही रोगी उठा सकता है जो
पूर्ण रूपेण इन सूत्रों को समर्पित हो जाए और मनोरोगों के विरूद्ध कटिबद्ध हो जाए।
कम गंभीर मनो समस्या
हमने उसे कहा जिसका एक ही आरोगी था।
अधिक गंभीर
मनोसमस्या उसे कहा जिसके कई सारे आरोगी थे।
भीषण गंभीर मनो
समस्या हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-
यदि कोई रोगी अपनी
शादी से पहले मनोरोगों की गिरफ्त में आ गया था और मनोरोगों की अवस्था में उसकी
शादी हो गयी तो ये एक भीषण मनोरोग के लक्षण हैं।
शादी के बाद दिल और
दिमाग के स्तर पर आमूल चूल परिवर्तन होते हैं। उस बदलाव के लिए व्यक्ति का मानसिक
रूप से स्वस्थ्य होना नितांत आवश्यक है।
जब व्यक्ति मानसिक
रूप से स्वस्थ्य होगा तो वे उन परिवर्तनों को सहज स्वीकार कर लेगा।
दरअसल मनोरोग जब
पुराना हो जाता है तो उसके उपचार के लिए रोगी के दिलोदिमाग का वैसा ही वातावरण
चाहिए होता है जैसा मनोरोगों की चपेट में आने के समय था।
चूँकि अब तो वह वक्त
गुजर गया। उस समय रोगी कुंवारा था इसलिए दिल-दिमाग का वातावरण दूसरा था। उस समय
उसकी सोच, इरादे और लक्ष्य दूसरे थे। अब तीन सौ साठ डिग्री का अंतर आ चुका है।
वैसा वातावरण अब
नहीं लाया जा सकता।
अतः ऐसे मामलों में
उपाय ये है कि मनोरोगों की विधि पूरी कर लेने के बाद यानि अबोध की पहचान, आरोगियों की पहचान तथा बैठक क्रम में संजीवनी वाक्य का प्रयोग कर लेने के बाद
रोगी को मनोरोग दूर होने की लम्बी प्रतीक्षा करनी पडे़गी।
आरोगियों से संजीवनी
वाक्य कहने के बाद तत्काल प्रभाव से मनोरोग दूर नहीं होगा। चूँकि आपकी घबराहट दूर
हो जाएगी, सिर दर्द और तमाम मनोरोगीय लक्षण मिट जाएंगे, उसके बावजूद भी मनोरोग बना
रहेगा।
सिरदर्द और दिल की
घबराहट पहले वाली नहीं रहेगी, तब भी एक प्रकार का सिरदर्द और दिल पर वजन सा बना
रहेगा।
इसका उपचार ये है कि
रोगी को कम से कम चैथे दिन या फिर सप्ताह में एक बार सेक्स करना बेहद जरूरी होगा
और हर सेक्स के बाद अपने अबोध से बातचीत करनी होगी।
यदि सेक्स करे हुए
पखवाड़ा या महीनाभर गुजार दिया तो घुटन सी महसूस होना शुरू हो जाएगी। दिमाग बंद सा
मालूम पड़ेगा। ये समस्या बढ़ती जाएगी, ऐसा लगेगा कि जान निकलने वाली है। मानो इस तरह घुटन
में हम मर ही जाएंगे लेकिन जैसे ही रोगी सेक्स करेगा, सारी घुटन दूर हो जाएगी। बड़ी तेजी से बदलाव मालूम पड़ेंगे। उसके बाद जब अबोध से
बातचीत होगी तो मानसिकता में बंधी हुई गांठें खुलती मालूम पड़ेंगी।
इस तरह रोगी स्वस्थ
मानसिकता की तरफ एक कदम आगे बढ़ जाएगा।
बमुश्किल चार दिन या
आठ दिन या पखवाड़ा गुजरेगा कि रोगी पुनः उसी घुटन का शिकार हो जाएगा और पुनः सेक्स
तथा आबोध से बातचीत करना पड़ेगी।
यदि रोगी ने शादी से
पहले कभी सेक्स नहंी किया था तब तो मुश्किल से वह हर सेक्स के बाद तीन दिन ही
गुजार पाएगा और उसकी घुटन दयनीय स्थिति तक पहुँच जाएगी।
और यदि रोगी ने शादी
से पहले तथा मनोरोगों की चपेट में आने से पहले सेक्स का आनंद ले लिया था तो रोगी
बिना सेक्स किये एक पखवाड़ा भी गुजार सकता है। अधिकतम महीना भी गुजार सकता है।
हर सेक्स के बाद
रोगी एक कदम स्वस्थ्य हो जाएगा। ये प्रक्रिया कई महीनों की और सालों की हो सकती
है।
जैसे-जैसे समय
गुजरता जाएगा रोगी के सेक्स का अंतराल बढ़ता जाएगा।
एक लम्बी अवधि बाद
रोगी पूर्ण रूपेण स्वस्थ्य हो जाएगा।
इसमें सकारात्मक बात
ये है कि रोगी को अपने आरोगियों से बस एक ही बार मीटिंग करके संजीवनी वाक्य बोलना
है लेकिन अबोध से हर सेक्स के बाद बातचीत करना है।
अभी एक अवस्था इससे
भी भीषण है।
और वो अवस्था ये है
कि रोगी यदि धुम्रपान करने वाला है और उसने अपनी शादी से पहले जबकि वो मनोरोगों की
चपेट में था, धुम्रपान छोड़ दिया और उसके बाद उसकी शादी हुई तो ये स्थिति बेहद खतरनाक है।
दरअसल धूम्रपान के
मामले में बहुधा ऐसा होता है कि लोग शादी से हफ्ता दस दिन पहले धुम्रपान छोड़ देते
हैं और शादी के कुछ समय पश्चात तक छोड़े रहते हैं और बाद में फिर शुरू कर देते हैं।
ये स्थिति एक
स्वस्थ्य मानसिकता वाले व्यक्ति पर तो कोई दुष्प्रभाव नहीं डालती लेकिन यदि
व्यक्ति मनोरोगी है और मनोरोग की अवस्था में धुम्रपान छोड़ रहा है, और फिर शादी की तथा शादी के कुछ समय पश्चात पुनः धुम्रपान शुरू कर दिया तो ये
स्थिति मनोविज्ञान में भीषण से भीषणतम मनोरोग की हुई।
अब सर्वप्रथम तो वह
यह याद करे कि उसने कितने दिन के लिए धुम्रपान छोड़ा था।
मान लो उसने 70 दिन के लिए धुम्रपान छोड़ा था।
तो उसे हर बार 70 दिन के लिए धुम्रपान छोड़ना पड़ेगा।
हर बार से अभिप्राय
है कि मनोरोगों के इन सूत्रों की जानकारी हो जाने के बाद और इनके उपाय अपनाने हेतु
वो 70 दिन के लिए धुम्रपान छोड़ दे।
इस बीच वह अपना अबोध
पहचानें तथा आरोगियों से निपटे।
70 दिन धुम्रपान छोड़ने के बाद उसे पुनः धुम्रपान करना
पड़ेगा और तब तक करेगा जब तक धुम्रपान उस पर भारी न गुजरने लगे।
हल्का धुम्रपान करे।
दो दिन, चार दिन हफ्ताभर। फिर उसका मन धुम्रपान को बर्दाश्त करना बंद कर देगा। नसें
तनने लगेंगी।
उसके बाद पुनः
धूम्रपान छोड़ दे।
पुनः 70 दिन के लिए छोड़ना पड़ेगा। इस बीच निरंतर सेक्स और अबोध से बातचीत की प्रक्रिया
अपनाता रहे।
मानसिक रूप से वो 70 दिन तक ही धुम्रपान छोड़ सकता है। 70 दिन से ज्यादा जैसे समय गुजरेगा, उसकी नसें तनने लगेंगी। भूख खत्म हो जाएगी। परेशानी बढ़ती जाएगी।
मुश्किल से दो तीन
दिन और गुजार सकता है, उसके बाद उबकाई होना शुरू हो जाएगी। दिल लौटेगा। उसे पुनः धुम्रपान शुरू करना
पड़ेगा। तभी स्थिति सुधरेगी।
और धुम्रपान तब तक
करना पड़ेगा जब तक मन स्वीकारता है। चार छह दिन में, सप्ताहभर में मन धुम्रपान को
स्वीकारना बंद कर देगा। इस प्रकार उसे पुनः धुम्रपान छोड़ना पड़ेगा।
इस बीच लगातार सेक्स
और अबोध से बातचीत जारी रखना पड़ेगी।
ये 70 दिन के लिए कितनी बार धुम्रपान छोड़ना और खाना पड़ेगा ये निश्चित नहीं है।
शीघ्र से शीघ्र यदि
रोगी ठीक होना चाहता है तो इसका एक ही उपाय है कि रोगी उसी वातावरण को उपलब्ध हो
जिस वातावरण में वह मनोरोगों में घिरते समय उपस्थि था।
मानो रोगी मनोरोगों
में घिरते समय कोई दुकान चलाता था और अब कहीं नौकरी कर रहा है तो रोगी को चाहिए कि
जब तक पूर्ण स्वस्थ्य नहीं हो जाता, वो नौकरी छोड़कर दुकान ही चलाए।
मनोरोग एक ऐसी
खतरनाक स्थिति है कि रोगी अपने जिन हालातों में मनोरोग का शिकार होता है, वे हालात या वातावरण रोगी की मानसिकता में स्थायी होकर रह जाते हैं। फिर उस
हालात या वातावरण की अनुभूतियाँ तब तक बाहर नहीं निकलती जब तक व्यक्ति उसी वातावरण
को ग्रहण करके मनोरोगों को दूर करने के उपाय न करे।
व्यक्ति के जीवन में
अपने पैतृक स्थान का विशेष महत्व होता है। पैतृक स्थान यानि व्यक्ति जहाँ पला-बढ़ा, वो वातवरण दिल-दिमाग पर विशेष महत्व रखता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे पीयर
प्रेशर कहा जाता है यानि साथियों के दबाव वाला वातावरण।
आप पैतृक स्थान के
अलावा कहीं भी जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो वहाँ आपको आपके पदनुसार पहचान मिलती है
और पैतृक स्थान पर आपके पद को कोई विशेष औचित्य नहीं माना जाता बल्कि आप किसके
बेटे है, किसके भतीजे हैं और खुद आपका क्या नेचर है, इस पर आपके साथ होने वाला व्यवहार निर्भर करता है।
यदि व्यक्ति पैतृक
स्थान पर मनोरोग का शिकार हुआ है और मनोरोग भी विवाह मनोरोग तथा धुम्रपान विवाह
मनोरोग है तो स्पष्ट रूप से रोगी को पैतृक स्थान पर रहना पड़ेगा।
विवाह मनोरोग- विवाह मनोरोग हमने उसको कहा जो विवाह से पहले
मनोरोग की चपेट में आया हो तथा इसी अवस्था में उसका विवाह हो गया हो।
धुम्रपान विवाह मनोरोग- विवाह से पहले यदि व्यक्ति
ने धुम्रपान छोड़ दिया है तथा वह मनोरोगी था और इसी अवस्था में उसका विवाह हो जाता
है तो इसको धुम्रपान विवाह मनोरोग कहा है।
धुम्रपान विवाह
मनोरोग तमाम मनोरोगों में सबसे विकराल स्थिति है। हालांकि उपाय इसका भी है लेकिन
रोगी को सर्वप्रथम धैर्य का सबूत देना पड़ेगा।
बहुत धैर्य और
विश्वास के साथ मनोरोग के सूत्रों पर काम करना होगा।
रोगी ने विवाह पूर्व
कितने दिन के लिए धुम्रपान छोड़ा था। इसको अच्छी तरह याद करने के बाद रोगी को चाहिए
कि वह हर बार उतने ही दिन के लिए धुम्रपान का त्याग करे।
ये काम बेहद जटिल है
लेकिन व्यक्ति की जिजीविषा से बढ़कर हरगिज भी नहीं। क्योंकि इन उपायक्रम के उस पार
एक शानदार, हँसती और खिलखिलाती जिंदगी खड़ी है इसलिए उसे पाने के लिए ये काम करना ही
पड़ेगा।
धुम्रपान का सेवन
करके और उसका छोड़ना वो भी एक निश्चित अवधि के लिए जबकि मालूम है, हमें पुनः उसका सेवन करना है, मानो लोहे के चने चबाने के समान है या कहो कि धारा
के विपरीत चलना है मगर ये काम नामुमकिन नहीं है।
क्योंकि व्यक्ति को
अपनी जिंदगी पाना है, इसलिए ये काम करना ही पड़ेगा बल्कि इसका सकारात्मक पहलू ये है कि व्यक्ति एक
बहुत मुश्किल काम कर रहा है। ये कम खुशी की बात नहीं है कि हम बहुत मुश्किल काम
में सफल होने जा रहे हैं।
व्यक्ति के दृढ़
निश्चय के आगे बहुत बड़े काम भी बौने नजर आते हैं।
शीघ्र अतिशीघ्र
स्वस्थ्य होने का एकमात्र उपाय है कि रोगी मनोरोगो में घिरते समय जिस वातावरण और
जिस परिस्थिति को उपलब्ध था, मनोरोगों के उपाय के समय भी उसी वातावरण और उसी
परिस्थिति को उपलब्ध रहे,
तब तो रोगी बामुश्किल चार या पाँच बार धुम्रपान छोड़ेगा और पूर्ण रूपेण
स्वस्थ्य हो जाएगा।
लेकिन अगर रोगी का
वातावरण और परिस्थिति बदली हुई है, तब स्वस्थ्य होने में एक बड़ी मुद्दत का समय खर्च हो
सकता है।
एक-एक कदम मानसिकता
आगे बढ़ेगी। दरअसल विवाह मनोरोग और धुम्रपान विवाह मनोरेाग में स्वस्थ्य मानसिकता
सैंकड़ों लेयर के नीचे दबी होती है। हर सेक्स और अबोध से बातचीत के बाद मानो एक
लेयर हटती है। इस तरह हमें सभी लेयर हटाने के लिए लम्बी प्रतीक्षा करनी होती है और
बेहद धैर्य तथा विश्वास को साथ रखना पड़ता है।
बार-बार विश्वास
टूटेगा और धैर्य जवाब देगा कि नहीं हम सही नहीं हो सकते।
हर कोशिश के बाद भी
जब पूर्ण स्वस्थ्यता नहीं मिलेगी तो मन कहेगा कि हमारे नसीब में स्वस्थ्य होना
नहीं लिखा है, हम कभी ठीक नहीं हो सकते।
इस प्रकार
नाकारात्मक विचार बनते रहेंगे क्योंकि व्यक्ति तुरन्त फल चाहता है। समस्या चाहे
कैसी भी हो लेकिन व्यक्ति चाहता है कि तुरन्त निस्तारण हो जाये।
इसी को धैर्य कहा
गया। धैर्य एकदम टूटता है लेकिन व्यक्ति का दृढ़ निश्चय पुनः धैर्य को खड़ा करता है
और उसे बलवान बनाता है।
चूँकि रोगी को अपनी
स्वस्थ्य जिंदगी प्राप्त करना है अतः धैर्य और विश्वास को दृढ़ रखना ही पड़ेगा।
हम पीछे भी कई बार
बता चुके हैं और पुनः बता रहे हैं कि विवाह मनोरोग और धुम्रपान विवाह मनोरोग में
रोगी को उसी वातावरण को उपलब्ध होना पड़ेगा जिस वातावरण में वह मनोरोग में घिरते
समय था।
व्यक्ति के जीवन में
पैतृक स्थान का विशेष महत्व होता है। पैतृक स्थान का वातावरण अलग होता है तथा अन्य
स्थान का वातवरण अलग।
रोगी यदि अन्य स्थान
पर मनोरोग का शिकार हुआ है तो उपायक्रम के दौरान भी अन्य स्थान पर ही रहना
अतिलाभकारी होगा।
और यदि पैतृक स्थान
पर मनोरोग का ग्रास हुआ है तो उपायक्रम के दौरान रोगी को पैतृक स्थान पर ही रहना
पड़ेगा।
यदि रोगी वही काम
करे जो मनोरोग के घिरते समय किया करता था तब मनोरोग दु्रतगति से ठीक होगा।
अन्य अबोध
इसका हम पहली बार
जिक्र करने जा रहे हैं। इसके साथ हम अबोध को दो क्रम में बांटते हैं। एक- मुख्य
अबोध, दो- अन्य अबोध।
मुख्य अबोध यानि
रोगी का वो अबोध जिसकी रोगी ने बुराई की या सुनी।
अन्य अबोध- चूँकि
हमने बताया कि मुकम्मल मानव सभ्यता तीन हिस्सों में बंटी हुई है- अबोध, सामान्य और प्रौढ़।
अतः सरल सी बात है
कि हर सामान्य या प्रौढ़ व्यक्ति के इर्द-गिर्द कई अबोध संबंधों में होंगे।
कई अबोधों से निकटता
भी होगी। चूँकि मुख्य अबोध के अलावा भी रोगी की मानसिकता में अन्य अबोध भी अपनी
घुसपैठ बना लेते हैं।
हालांकि रोगी ने
अन्य अबोध की कोई बुराई नहीं की, कोई बुराई नहीं सुनी तदुपरान्त व्यक्ति के रोगी बन
जाने के बाद अन्य अबोध रोगी की मानसिकता में प्रविष्ट हो जाते हैं।
लेकिन केवल वही अन्य
अबोध जिनकी रोगी के साथ अधिक निकटता है। कदाचित रोगी जिनके साथ दिल से दिल मिलाकर
बातचीत किया करता है।
अन्य अबोध उपचार
क्रम में महती भूमिका में है। अन्य अबोध को नजर अंदाज करके रोग को दूर नहीं किया
जा सकता।
अन्य अबोध विवाह
मनोरोग, धुम्रपान विवाह मनोरोग के उपचार में अनिवार्य रूप से शामिल होते हैं।
हम मनोरोग के प्रकार
गिनाते हैं।
साधारण मनोरोग- वह मनोरोग जिसका एक ही आरोगी हो।
गंभीर मनोरोग- जिसके अनेकानेक आरोगी हों।
विवाह मनोरोग- जो
विवाह से पूर्व मनोरोगों में घिर गया हो और इसी अवस्था में उसका विवाह हो गया हो।
धुम्रपान विवाह मनोरोग- विवाह से पूर्व मनोरोग में
घिर जाना तथा धुम्रपान का शौकीन होने के बावजूद विवाह से कुछ रोज पहले धुम्रपान
छोड़ देना तथा विवाह पश्चात धुम्रपान का सेवन कर लेना।
अन्य अबोध की महती
भूमिका उन रोगियों के मनोरोग में अनिवार्य रूप से होती है जो विवाह मनोरोग या
धुम्रपान विवाह मनोरोग के पीड़ित होते हैं।
अबोध की ही तरह रोगी
को चाहिए कि वह अन्य अबोध को भी चिह्नित करे। जिस तरह रोगी को आवश्यक है कि वह
निरन्तर अपने अबोध से बातचीत करता रहे, उसी तरह रोगी को अन्य अबोध से भी निरन्तर बातचीत
करना पड़ेगी।
हमने बताया कि विवाह
मनोरोगी और धुम्रपान विवाह मनोरोगी को हर सेक्स के बाद अपने अबोध से बात करना
अनिवार्य है, ठीक उसी प्रकार अपने अन्य अबोध से भी बात करना अनिवार्य है।
पीछे हमने अन्य अबोध
की चर्चा इसलिए नहीं की थी कि सारी बातें एक बार में पाठक के सिर से ऊपर से गुजर
जाएंगी।
हम कदम दर कदम आगे
बढ़ रहे हैं। हमारा विशेष ध्यान इस बिन्दु पर है कि किस प्रकार एक-एक बात पाठक की
समझ में उस प्रकार आती चली जाए, जिस प्रकार हम समझाना चाहते हैं।
यही कारण कुछ बातें
समझाकर हम कुछ बातें रोक देते हैं और उन्हें अगले स्टेप में सरल स्वर में समझाते
हैं।
अन्य अबोध भी मुख्य
अबोध की भाँति रोगी की मानसिकता की तहों में बैठ जाता है और उसकी निकासी तब तक
नहीं हो सकती जब तक आरोगियों के उपायक्रम से निपटने के बाद अबोध के साथ अन्य अबोध
से भी बातचीत न की जाए।
अन्य अबोध की संख्या
कितनी भी हो सकती है। एक,
दो, तीन, चार...दस।
अबोध, सामान्य और प्रौढ़ समाज में एक साथ घुलमिलकर रहते हैं। एक सामान्य के सम्पर्क में
कितने ही अबोध और प्रौढ़ हो सकते हैं।
कोई सामान्य या
प्रौढ़ उस वक्त मनोरोगी बन जाता है जो अपने निकटवर्ती अबोध जिसकी शख्सियत का प्रभाव
रोगी के दिल पर प्रभावी होता है, बुराई में संलग्न हो जाता है।
तो जिस-जिस अबोध की
उसने बुराई की या सुनी वे तो मुख्य अबोध हो गये लेकिन यदि रोगी के सम्पर्क में
अबोधों की संख्या अधिक है और उन अबोधों से भी उसका बातचीत का रिश्ता है तो भले ही
मनोरोगी ने उन अबोधों की बुराई न की हो, तब भी वे रोगी की मानसिकता में प्रविष्ट हो जाएंगे।
उनको भी मानसिकता से
बाहर निकालने के लिए निरंतर बातचीत का क्रम अपनाना पड़ेगा।
चूँकि वे मुख्य अबोध
नहीं है इसलिए उनका कोई आरोगी भी नहीं हुआ। परन्तु मात्र बातचीत का उपाय जरूर
निभाना पड़ेगा।
और बातचीत हर बार
करना होगी। ये बार कितने ही हो सकते हैं।
कोई भी रोगी
मनोरोगों से पार तब तक कदापि नहीं हो सकता, जब तक वह अपना मनोचिकित्सक स्वयं न बन जाये। अबोधों
की पहचान मनोरोगी को स्वयं करना होती हैं।
रोगी को चाहिए कि वह
सबसे पहले अपने खास यानि निकटवर्ती लोगों को चिह्नित करे। कौन-कौन लोग ऐसे हैं
जिनकी शख्सियत से रोगी प्रभावित है। जो रोगी के दिल पर असर अन्दाज होते हैं।
उन खास लोगों में ही
फिर अबोध को चिह्नित किया जाए। देखा जाए कि इनमें अबोध कौन-कौन है।
अबोध के विशेष
लक्षण- सोते समय दिखाई देने वाले सपने इन्हें कभी कभार नजर आते हैं। हँसने की रौनक
चेहरे पर नहीं खिल पाती है। ऐसा आभास होता है मानो नकली हँसी हँस रहे हों। संशय और असंतोष
से घिरे रहते हैं। किसी भी बात के प्रति पूर्ण रूपेण संतुष्ट नहीं होते।
इस प्रकार रोगी को
चाहिए कि वे अपने आस-पास के मौजूद लोगों में अबोध को चिह्नित करे।
अन्य अबोध से बातचीत
का क्रम जारी रखे।
इस तरह हमने
मनोरोगों के प्रकार और उपाय लिखे।
निःसंदेह मनोरोग एक
गंभीर और बेहद पीड़ादायक रोग है। इससे ज्यादा कोई पीड़ादायक क्या रोग हो सकता है कि
रोगी को आत्महत्या को विवश होना पड़े।
इस रोग की चपेट में
आने के बाद रोगी अपनी स्वाभाविक मानसिक अवस्था खो बैठता है। चूँकि ये पागलपन की
अवस्था तो नहीं होती लेकिन मानसिक अवस्था प्रभावित हो जाना, व्यक्ति का ये न समझ पाना कि आखिर मुझे हो क्या गया? मैं अपने ही दिमाग का इस्तेमाल कर क्यों नहीं पा रहा हूँ, एक प्रकार का पागलपन ही कहा जाएगा लेकिन उस स्थिति में इसको पागलपन माना जाएगा
जब तक रोगी अपनी वास्तविक स्थिति से परिचित नहीं हो जाता है। जब तक रोगी इस
वास्तविकता से परिचित नहीं हो जाता कि मैं मनोरोगी हो चुका हूँ और इसका कारक फलां
है व इसके उपाय निम्न हैं।
इतना स्वीकार कर
लेने भर से रोगी के होशों हवास पुनः वापस लौट आते हैं। ये स्वीकार कर लेने भर से
कि मैं मनोरोगी बन गया हूँ और इसकी वजह निम्न है, इतना स्वीकार और विश्वास कर
लेने भर से रोगी स्वस्थ्य तो भले ही नहीं हो जाएगा, स्वस्थ्य तो तभी होगा जब उपायक्रम
फोलो करेगा लेकिन इतना मान लेने भर से रोगी पागलपन की अवस्था से जरूर बाहर आ
जाएगा।
जो भ्रम, भ्रांतियाँ और बेकार की बातें रोगी ने पाल रखी होती है। उनसे छुटकारा अवश्य
मिल जाएगा।
सर्वप्रथम
भ्रांतियों और पागलपन से ही छुटकारे की आवश्यकता होती है।
मनोरोगी हर समय अपने
परिजन से, सगे संबंधियों के प्रति क्रोधित रहता है। वह यह जताना चाहता है कि लोग समझते
क्यों नहीं कि मैं कितना डिस्टर्ब हूँ।
जबकि लोगों के सहने
की एक सीमा होती है। यूं भी लोगों को बातें बनाने में बड़ा मजा आता है। लोगों को
बातें बनाने के मौके चाहिए और अब मनोरोगी के सोजन्य से वे मौके हाथ आ चुके हैं।
मनोरोगी उल्टी-सीधी हरकतें कर रहा है। मनोरोगी अपनी दिनचर्या गंवा चुका है। वह
अपने काम के प्रति और जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह हो गया है क्योंकि रोगी समझ
रहा है कि मैं डिस्टर्ब हूँ और जब तक अपनी मूल स्थिति वापस नहीं पा लेता तब तक काम
और जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह रहना कतई भी गलत नहीं है।
रोगी की बिगड़ चुकी
इस दिनचर्या के चलते उसके परिजन और आसपास के लोग उस पर कटाक्ष करने लगते हैं। उन
कटाक्षों को सुनकर रोगी क्रोधित होता जाता है। रोगी लोगांे को समझाना चाहता है कि
मैं बीमार हूँ इसलिए मेरे सचेत रहने में कमी आई। तुम बातें बनाने वाले कौन होते हो? तुम बातें क्यों बना रहे हो? तुम मेरे विश्वास को क्यों छल रहे हो? मुझे तुमसे ऐसी उम्मीदें तो नहीं थी।
इन्हीं बातों के सबब
रोगी लोगों से कलह पाल लेता है। रोगी इतना क्रोध में रहता है कि वह लोगों से लड़ने
भी लगता है।
उसकी ये लड़ाई उसे
लोगों के बीच अधिक चर्चा का केन्द्र बना देती है। अब लोग मानने लगते हैं कि ये
वास्तव में पागल हो गया। इसकी दिमागी अवस्था सचमुच बिगड़ चुकी है। उसके विरूद्ध
होने वाली चर्चा अपना आकार बढ़ा लेती है। इस प्रकार रोगी पहले से अधिक व्यथित हो
जाता है।
यहाँ समझने वाली बात
ये है कि हम अगर यहाँ विवेचना करे और सोचे कि यहाँ रोगी के प्रति माहौल केसे शान्त
और सही हो?
यहाँ दो पक्ष हैं।
एक रोगी और दूसरा
अन्य लोग।
अन्य लोग रोगी के
विरूद्ध बातों में मशगूल हुए हैं तो सिर्फ रोगी की अजीब हरकतों के चलते। अतः रोगी
के विरूद्ध इस माहौल को सही करने के सिर्फ दो उपाय हो सकते हैं-
नम्बर वन या तो रोगी
वैसी हरकतें बंद करे या फिर अन्य लोग रोगी को स्वीकार कर लें और उसके विरूद्ध
अनर्गल बातों पर विराम लगा दें।
नम्बर दो वाला काम
तो नामुमकिन है। लोगों को अनर्गल बातें करने से रोकना तो इस दुनिया का सबसे बड़ा नामुमकिन काम है।
क्योंकि लोगों का
आनंद केन्द्र ही यह है कि वे दूसरों के प्रति बातें बनाये और अफवाह फैलाएं।
यही लोगों की
एकमात्र महत्वाकांक्षा होती है।
इसलिए नम्बर दो वाला
काम तो हो ही नहीं सकता। वो तो पूर्ण रूपेण निषेध सरीखा कदाचित नामुमकिन है।
नम्बर वन था कि रोगी
खुद को नियंत्रित करे। ये काम पूरी तरह से मुमकिन है और इस तरह से उसके अनर्गल
प्रचार को थामा जा सकता है।
लेकिन ये तभी संभव
है जब रोगी यथार्थ को समझे। रोग की वास्तविकता से परिचित होवे। जब तक रोगी ये
मानेगा कि मुझ पर भूत-प्रेत का साया है या किसी अन्य बीमारी के तहत मुझे ये बीमारी
पैदा हो गयी या फिर मेरी असफलता, मेरी संकोच, मेरे भय के चलते ये समस्या पैदा हुई है, जब तक मनोरोगी इन मिथकों और भ्रांतियों से खुद को बाहर नहीं निकालेगा। तब तक
वह यथार्थ पर नहीं आ सकता।
और जब तक यथार्थ पर
नहीं आएगा तब तक रोगी खुद को नियंत्रित नहीं कर सकता।
एक मनोरोगी का सबसे
पहला काम है खुद पर काबू पाना या कहो विजयी होना। यहाँ से रोगी अपने भीषणतम रोग पर
पहली विजय प्राप्त कर लेता है।
इतना मान लेने भर से
कि मैं एक मनोरोगी हूँ और इस मनोरोग का मूल कारण न तो भूत-प्रेत है, न मेरी कोई अन्य शारीरिक बीमारी है और न मेरी असफलताएं, संकोच, भय या बड़े सपने हैं।
बल्कि इस रोग की मूल
वजह मेरे द्वारा की या सुनी गयी अबोध की बुराई है।
इतना मान लेने भर से
आश्चर्यजनक रूप से रोगी अपना खोया हुआ विश्वास वापस पा लेगा। उसके द्वारा की जाने
वाली पागलपने की हरकतें स्वाभाविक रूप से खुद-ब-खुद थम जाएंगी।
व्यक्ति अपने मूल
स्वाभाव को उपलब्ध हो जाएगा। अब केवल रोग की समस्या रह जाएगी। रोगी जिस प्रकार रोग
के उपायक्रम अपनाता जाएगा,
उसकी मानसिकता यथावत होती जाएगी।
मनोरोग से अधिक एक
रोगी को मनोरोगों के प्रति भ्रम नुकसान पहुँचाते हैं। व्यक्ति मूल स्वाभाव को
छोड़कर पागलपन की सोच पर निर्भर हो जाता हैं ये अवस्था रोग से कहीं अधिक घातक है।
इस अवस्था में पैदा किए गये बच्चे मानसिक रूप से प्रभावित पैदा होते हैं।
व्यक्ति कितना भी
बड़ा मनोरोगी बन जाए लेकिन मनोरोगीय अवस्था में पैदा किये गये बच्चे स्वस्थ्य
मानसिकता के बच्चे होते हैं लेकिन जब व्यक्ति मनोरोगी हो और वह भ्रम का शिकार होकर
कि मुझ पर भूत-प्रेत है या फलां ने मेरे
साथ नाइंसाफी की है इसलिए मेरी ऐसी हालत बनी। अनरगल किसी भी प्रकार का भ्रम यदि
मनोरोगी ने पाल रखा है और उस पर आंख मूंदकर यकीन करता है तो ऐसी अवस्था में
मनोरोगी द्वारा पैदा किया गया बच्चा अस्वस्थ्य मानसिकता का होता है।
कदाचित।
रोगी का सर्वप्रथम
काम है अपनी फलासफी को मजबूत करना यानि सच की जमीन पर स्थिर होना जब रोगी सच की
जमीन पर स्थिर हो जाएगा तो मानो आधी जंग तो वह जीत गयाँ शेष कार्य उपायक्रम को
निभाना बचा।
भगन्दर (Festula)
भगन्दर की समस्या
मनोरोगों के कारण उत्पन्न होती है। जो व्यक्ति भगंदर रोग से पीड़ित है तो वह
भलीभाँति जान ले कि वह मनोरोग से भी पीड़ित है।
ये अलग बात है कि उस
व्यक्ति को इस बात का इल्म न हो कि वह मनोरोगी है।
अमूमन मनोरोगी नहीं
जानते कि वह मनोरोगी भी हैं। जो आंशिक रूप से मनोरोगी होते हैं। अधिकतर आरोगी वर्ग
आंशिक मनोरोगी होता है।
चूँकि कोई भी
मनोरोगी इसलिए मनोरोगी बनता है क्योंकि उसने अपने अबोध की बुराई किसी आरोगी से की
या सुनी होती है। चूँकि मनोरोगी व्यक्ति अबोध के अधिक निकट था इसीलिए वह उस पर
मनोरोगों का प्रभाव अधिक हुआ लेकिन जिन आरोगियों से मनोरोगी ने बुराई की या सुनी
वे भी आंशिक मनोरोगी हुए।
अतः बहुत से लोगों
को ये जानकारी ही नहीं होती है कि वे मनोरोगी भी हैं।
वे जीवनभर यही
शिकायत करते रहते हैं कि मेरा सिर भारी रहता है कि मेरे सिर में दर्द रहता है
इत्यादि।
भगन्दर रोग पाचन
क्रिया बिगड़ जाने के कारण उत्पन्न होता है। पाचन क्रिया बिगड़ने के कई मूल कारण
होते हैं। हम यहाँ दूसरे कारणों से नहीं बल्कि मनोरोग द्वारा उत्पन्न हुए कारण की
चर्चा कर रहे हैं।
इसमें यूं तो पेट
खराब नहीं रहता। व्यक्ति को भूख भी ठीक लगती है। खाता भी ठीक है और शौच भी ठीक आती
है। मगर तब भी मनोरोगी की पाचनक्रिया कहीं प्रभावित रहती है।
उतनी खुलकर शौच नहीं
होती सामान्यतः जितनी होनी चाहिए। इसी कारणवश गुदा द्वार के निकट एक छाला बन जाता
है और फूटने पर उस पर मवाद निकलता है इसी को भगन्दर कहते हैं।
ये समस्या निश्चित
अवधि पश्चात मुखर होती रहती है। एक बार छाला फूटने और मवाद निकलने के कुछ दिन
पश्चात अर्थात् दस, पन्द्रह, बीस दिन पश्चात पुनः छाला बन जाता है। इस दौरान रोगी अत्यन्त पीड़ा के दौर से
गुजरता है।
डाक्टरों के पास इस
रोग का एकमात्र उपाय आपरेशन होता है लेकिन किसी भी डाक्टर के पास ऐसा कोई अनुभव
नहीं होता की एक भी रोगी किसी आपरेशन पश्चात स्वस्थ्य हो गया हो।
समस्या का मूल वो
छाला नहीं है। अपितु पेट की खराब पाचन शक्ति है और ये खराब पाचन शक्ति तब तक यथावत
रहेगी जब तक मनोरोगी ठीक नहीं हो जाता।
कदाचित भगन्दर रोग
को दूर करने का एकमात्र उपाय मनोरोग को दूर करना है। जब तक मनोरोग ठीक नहीं हो
जाता कदापि तब तक भगन्दर रोग ठीक नहीं हो सकता।
भगन्दर के लिए
आपरेशन, विभिन्न दवाएँ या अन्य थैरेपियाँ मात्र मिथ्या उपचार हैं, जिसका कोई लाभ नहीं है।
यानि भगन्दर के
रोगियों को चाहिए कि वे डाक्टर की सलाह या उसके उपचार तुरन्त बन्द कर देवें। वहाँ
पैसे और स्वास्थ्य की बरबादी है।
रीढ़ की हड्डी
मनोरोग अनेकानेक
प्रकार से प्रस्फुटित होता है। चूँकि मनोरोग शारीरिक स्वास्थ्य पर अपना प्रभुत्व
रखता है अतः कई प्रकार के शारीरिक दोष व विस्फुटित होते हैं। मनोरोगी रीढ़ की हड्डी
में दर्द और विभिन्न प्रकार के रोग जैसे- कांधे का दर्द, भगंदर, हाथ की मांसपेशियों का खिचाव इत्यादि रोग मनोरोगों के चलते दृष्टिगोचर होते
हैं।
इन रोगों को लेकर भी
अनेक भ्रांतियाँ मेडिकल साइंस में व्याप्त हैं और रोगियों को विभिन्न थैरेपी के
वशीभूत इलाज किया जाता है।
तदापि रोगी कभी ठीक
नहीं हो पाता।
क्योंकि जब तक
मनोरोग दूर नहीं होगा तब तक कदापि रीढ़ के रोग दूर नहीं हो सकते।
यदि संयोगवश मनोरोग
दूर हो जाते हैं तो उससे उपजे रोग भी यकायक दूर हो जाते हैं और डाक्टर तथा रोगी इस
भ्रम के शिकार हो जाते हैं की उनकी थेरैपी से रोग दूर हो गया जबकि इस तथ्य की
सच्चाई ये होती है कि रोग इसलिए दूर हुआ होता है क्योंकि संयोगवश मनोरोग दूर हो
गया होता है।
संयोगवश मनोरोग का दूर होना
अधिकांशतः मनोरोग
संयोगवश दूर हो जाते हैं।
मनोरोगी द्वारा किसी
आरोगी से अबोध की बुराई करते समय रोगी के ये वहमों गुमान में भी नहीं होता कि वह
कितनी बड़ी मुसीबत में घिरने जा रहा है। अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहा है जिससे
उभरने में उसे नाकों चले चबाना पड़ जाएंगे।
ठीक इसी प्रकार
मनोरोगी को ये भी पता नहीं कि अपनी नादानी के चलते जिस भयानक मनोरोग की गिरफ्त में
आ गया था, संयोगवश अपने आरोगियों से संजीवनी वाक्य दोहराकर रेागी मनोरोग से दूर हो जाता है।
कदाचित! यहाँ
अधिकांशतः लोग मनोरोग में घिरते रहते हैं लेकिन संयोगवश अपने आरोगी से संजीवनी
वाक्य कह देने से वे एक बड़ी मुसीबत से बाहर आ जाते हैं। उन्हें पता भी नहीं होता
कि वे कितनी बड़ी विपत्ति से संयोगवश छूट चुके हैं।
ऐसे ही सौभाग्यशाली
रोगी जो संयोगवश अपने आरोगी से संजीवनी वाक्य कह देने से मनोरोग से मुक्त हो जाते
हैं, भगन्दर या रीढ़ के विभिन्न रोगों के रोगी ठीक हो जाते हैं। जबकि वे रोगी समझते
हैं कि डाक्टर की सेवाएँ लेने के बाद हम रोगमुक्त हुए हैं। जबकि वस्तुस्थिति ये है
कि भगन्दर के रोगी को तब तक कदापि स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल सकता जब तक उसका मनोरोग
दूर न हो जाए।
अब हम पेश कर रहे
हैं दो काल्पनिक कहानियां। इन कहानियों से पाठक आसानी से समझ सकेंगे कि किस तरह
कोई स्वस्थ व्यक्ति मनोरोगी बन जाता है और फिर वह एक दर्दनाक जिन्दगी जीने को विवश
होता है।
कहानी के पात्रों के
माध्यम से आप रोग के कारक को आसानी से समझ सकेंगे।
कहानी-सुमित
सुमित और अशोक की
गाढ़ी दोस्ती हो गयी थी। दोस्ती अधिक पुरानी नहीं थी। यही कोई छः माह पूर्व सुमित
का अशोक से पहला परिचय हुआ था।
फिर यकायक वह परिचय
गाढ़ी दोस्ती में तबदील हो गया।
सुमित इसकी वजह यूं
समझता था-अशोक साफ हृदय का आदमी है, कोई भी बात मुंह पर बोल देता है। कभी-कभी सुमित
अशोक की ऐसी बातों को फटे बांस की संज्ञा देना चाहता था, लेकिन अंततः बहादुरी की संज्ञा दे देता था।
आखिर मुंह पर बोलने
के लिए बहादुरी भी तो चाहिए। कभी-कभी सुमित को अशोक के अन्दर सेन्स कम नजर आते थे, सामान्यता जिन बातों पर खामोशी इख्तियार कर लेनी चाहिए या फिर यूं कहो कि
रिएक्ट नहीं करना चाहिए, वो उन पर भी रिएक्ट करता था। इसलिए सुमित को कभी-कभी अशोक की मानसिक स्थिति पर
शक भी पैदा हो जाता था।
लेकिन तब भी सुमित
की अशोक के साथ गाढ़ी छनती थी और इसका कारण था कि अशोक, सुमित से निश्छल प्रेम करता था।
अशोक गम्भीरता के
साथ सुमित को लेता था। सुमित का कोई भी मसअला हो, वह उस पर अशोक से बात कर
सकता था। क्योंकि अशोक सुमित के किसी भी टापिक पर पूरा ज्ञान ध्यान देता था और
अपने मश्वरों से नवाजता था। भले ही वे मश्वरे सुमित के किसी काम के न हों, लेकिन अशोक दिलचस्पी तो लेता था। यही सुमित के लिए काफी था।
सुमित के दोस्त तो
अनेक थे अच्छे भी, बुरे भी, लेकिन जिस तन्मयता और गम्भीरता से रिएक्शन अशोक करता था, ऐसा कहां कोई करता था। पहली बात तो सुमित के इर्द-गिर्द कोई ऐसा व्यक्ति ही
नहीं था जिसे हर बात बताई जाये और वह सुनने के प्रति दिलचस्पी ले।
दिल की बातें कौन
सुनना चाहता है, इसलिए किसी को सुनाने का मन भी नहीं होता। लेकिन अशोक की बात ही अलग थी। उसे
कोई भी बात सुनाओ, दिल से सुनता था और उस विषय पर खूब बोलता था।
कदाचित चाहे इतनी
छोटी बात बताई जाए कि मुझे खाने में काली दाल पसंद नहीं है। इस बात को भी अशोक यों
ही नहीं जाने देगा, बल्कि काली दाल के सम्बन्ध में पूरी बात दिलचस्पी से सुनेगा और उस पर बोलेगा
भी, फिर अपनी आदतें बताएगा।
अशोक सुमित से दिल
लगाकर बात करता था। सुमित से अगर एक दो रोज अशोक की मुलाकात नहीं हो पाती थी तो
जैसे अगली मुलाकात में अशोक बेचैनी का प्रदर्शन करता था और नाराजगी भरे स्वर में
पूछता था कि तुमने बताया भी नहीं कि तुम कहां बिजी हो?
अशोक को लेकर सुमित
आकर्षण दबाव में रहता था। मानो सुमित कहीं गुजरा जा रहा है और वहां अशोक दिखाई पड़ता
है तो सुमित ऐसे मानसिक दबाव में रहता था कि वह भले दो क्षण को मिले, लेकिन अशोक को बताएगा जरूर कि कहां जा रहा है या क्या काम है।
सुमित के लिए अशोक
को नजरअंदाज करना नामुमकिन-सा हो गया था। एक अजीब प्रेशर दिमाग पर बन जाता था, जबकि दोस्त और परिचित तो सुमित के अन्य व्यक्ति भी थे लेकिन इस प्रकार का कोई
मानसिक दबाव नहीं कि कहीं जाते हुए अगर कोई मिल गया तो उसे बताना या दो बातें करना
जरूरी हो।
न उन दोस्तों को कोई
मतलब। चाहो तो मिलो। चाहो तो न मिलो। जब आगे कभी जी चाहे तब मिलो।
लेकिन अशोक के साथ
सम्बन्धों में ऐसा नहीं था।
वह अगर कहीं दिखाई
दे गया तो मानो वह कोई चुम्बक हो और सुमित कोई लोहा, जिसे लाजिमी तौर पर उसके पास
खिंचे चले जाना है।
और सुमित के इस
खिंचाव का कारण यह था कि वरना अशोक बुरा मान जाएगा, अशोक इस बात को नोटिस करता
है कि यह मुझसे मिला नहीं,
इस नोटिफिकेशन की वजह से ही सुमित पर अनायास ये प्रेशर बन जाता था कि भले ही
दो क्षण को सही, लेकिन अशोक से बात जरूर करना है। यहां बताते चलें कि अशोक अबोध ग्रुप का
व्यक्ति है। मानसिक तौर पर वह असन्तुष्ट है, वह सुमित के इग्नोर किये जाने पर ज्यादा बेचैन हो
जाता है कि शायद इसका मुझसे दोस्ती से दिल भर गया और अब ये मुझे छोड़ रहा है। इसलिए
सुमित की कोई भी इग्नोरिंग अशोक को बेचैन करती है। अशोक इस बात के प्रति संतुष्ट
नहीं है कि जब मैं अपनी जगह सही हूं तो सुमित क्यों मुझे छोड़ेगा और अगर तब भी
छोड़ता है तो फिर छोडता रहे।
सुमित की अनदेखी अशोक
को बर्दाश्त नहीं होगी, इस कारण सुमित पर स्वाभाविक मानसिक दबाव बना रहता है कि वह कभी भी अशोक की
अनदेखी न करे।
सुमित एक जनरल
श्रेणी का व्यक्ति है। अधिक भावुक है। कल्पनाएं खूब संजोता है। रचनात्मकता से भरा
है। पूर्ण रूपेण संतुष्ट है। कोई उसे अच्छा समझता है तो अच्छी बात है और अगर बुरा
समझता है तो उसकी बला से । इन सम्बन्धों में एक बार वह अपनी भूमिका जरूर तलाशता
है। अगर गलती उसकी रही है तो अनायास उसके भीतर शर्मिंदगी का भाव उपजता है और अगर
गलती सामने वाले की है तो उसे जरा भी चिंता नहीं।
कदाचित छः महीने से
सुमित और अशोक की तगड़ी दोस्ती है। इतनी तगड़ी दोस्ती, इतने मानसिक दबाव वाली सुमित
ने कभी किसी से नहीं की। यहां इस गाढ़ी दोस्ती में अशोक की ही महती भूमिका है, क्योंकि वही ऐसी दोस्ती चाहता है। सो सुमित भी निभा रहा है।
मगर एक दिन सुमित का
अशोक से दिल मैला हो गया।
ये भला आदमी अशोक
बिलकुल भी सेंसियर नहीं है। जो उसकी नजर में सच है, उसे ही अन्तिम सच मानता है, और उसके मद्देनजर ऐसा बखान करता है जैसे मानो कोई कीमती जानकारी दे रहा हो।
जब अशोक को मालूम है
कि सुमित की दीदी प्राइवेट नौकरी करती है तो उसे चार जनों में खड़े होकर ये कहने की
क्या जरूरत थी कि प्राइवेट नौकरियों में लड़कियाँ अपने बॉस से फंसी हुई होती हैं, तभी उनकी नौकरी चलती है।
पहली बात तो ऐसा है
नहीं और अगर किन्हीं मामलों में ऐसा है भी तो अशोक को ये ख्याल तो करना चाहिए था
कि उस बैठक में सुमित भी मौजूद है और उसकी दीदी प्राइवेट जॉब करती है।
बड़ा गुस्सा आया
सुमित को, मगर कुछ बोल नहीं पाया। लेकिन अशोक से जरूर नफरत हो गयी। ऐसे ही कभी भी
ऊटपटांग बोल जाता है।
कुछ तो उसे सुमित का
ख्याल रखना था। वह तो सारी लड़कियों को कह रहा था तो सारी लड़कियों में तो सुमित की
दीदी भी आ गयी।
सुमित को भारी अपमान
महसूस हुआ। मानो अशोक सुमित को ही चिढ़ाने के लिए ऐसा कह रहा था। सुमित अपमान का सा
घूंट पीकर रह गया।
सुमित कशमकश में तो
फंसा कि कोई खरा जवाब दूं,
मगर उसने दिया नहीं। एक तो इसलिए कि अशोक विशेषतः सुमित की दीदी के लिए ही
नहीं कह रहा था, अगर समित नाराजगी का प्रदर्शन करेगा, तब जरूर उसकी दीदी पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाएगा कि
आखिर उसे बुरा क्यों लगा?
मगर दिल में नफरत घर
कर गयी।
एक भड़ास सुमित ने
कुछ घंटे बाद उन्हीं दोस्तों के बीच निकाली, जो उस बैठक में मौजूद थे, जब अशोक उपस्थित नहीं था।
सुमित देर तक अशोक
के करेक्टर पर प्रश्न चिन्ह खड़े करता रहा और अपने दोस्तों को बताता रहा कि उसने
उसे कहां-कहां झेला है।
अपने पाठकों को बता
दें कि यहां से सुमित की मानसिक अवस्था बिगड़ गयी।
वह भीषण मनोरोग का
शिकार हो गया।
सुमित ने शाम को
खाना खाया। वह एक अजीब-सी कैफियत का शिकार था। दिल में घुटन-सी हो रही थी। कुछ भी
अच्छा नहीं लग रहा था।
उदासी का वातावरण मन
में खिंच रहा था।
बहरहाल वह रात में
सो गया।
रात में किसी टाइम
उसकी आंख खुली। सिर बड़ा भारी हो रहा था। दिल पर घबराहट थी।
बहुत देर तक उसे
नींद नहीं आई।
ऐसा तो उसके साथ
नहीं होता था। फिर आज क्यों हो रहा है? शायद उसकी तबियत ठीक नहीं है।
घण्टों के जागने के
बाद और दिमाग को थका लेने के बाद तड़के उसे नींद आई।
सुबह को वह आठ बजे
तक सोता रहा।
आठ बजे के बाद सोकर
उठा।
अजीब-सा वातावरण था।
कुछ भी अच्छा नहीं
लग रहा था। दिल घबरा रहा था, क्यों घबरा रहा
है? कोई पता नहीं।
उसने मामले को
सामान्य तरह से ही लिया।
कुछ घंटे बाद उसे
अशोक मिल गया। हालांकि अशोक के प्रति नफरत का भाव था, लेकिन उससे सम्बन्ध तर्क करने को या उसकी गलतियां उसे बताने को वह मानसिक रूप
से अब भी खुद को तैयार नहीं कर पा रहा था।
उसने अशोक से बात की, मगर अब पहले वाली मुहब्बत नहीं, बल्कि एक इतिश्री थी।
पाठकों को बता
दें-यहीं से सुमित के मनोरोग पर मुहर ठुक गयी।
सुमित ने जब दोस्तों
के साथ अशोक के विरुद्ध भड़ास निकाली थी, उस समय मनोरोग की आधी प्रक्रिया पूरी हुई थी और जब
उसने अशोक से बात कर ली तो बाकी प्रक्रिया भी पूरी होकर वह पूर्णरूपेण मनोरोगी बन
गया।
अब धीमे-धीमे जैसे
समय बीतेगा, सुमित पर मनोरोग के लक्षण स्पष्ट होते जाएंगे।
अगले दिन सुबह को
सुमित ने परिवार इकट्ठा कर लिया था।
वह घबराते हुए कह
रहा था-मुझे सांस नहीं आ रही है, मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं। मुझे घुटन हो रही
है....मुझे रात नींद नहीं आई थी। दिल पर घबराहट है....मुझे कुछ हो रहा है।
सब घरवाले घबरा गये।
अजीब-सी मनोदशा थी
सुमित की। आंखें लाल हो रही थीं।
पड़ौस की एक औरत
सुमित की मां से सुमित को गौर से देखते हुए कहने लगी-‘‘भाभी, इस पर कोई असर है, इसकी आंखें देखो। उसे अपना होश नहीं है।’’
सुमित की मां को भी
ऐसा ही लग रहा था। जरूर किसी ने वशीकरण कर दिया है।
दोपहर तक सुमित
चिल्लाने लगा-“मेरे हाथों की नसें खिंच रही हैं...जैसे कोई मेरी नसें खींच रहा हो-मुझे बहुत
घबराहट हो रही है।
दोपहर में उसने जो
खाना खाया, थोड़ी देर में उल्टी करके सब बाहर निकाल दिया।
घबराहट इतनी ज्यादा
थी कि कुछ भी खाने को जी नहीं चाह रहा था। जबर्दस्ती खाया भी तो थोड़ी देर में
उल्टी हो गई।
परिजन उसे डॉक्टर के
पास लेकर गये।
डॉक्टर ने उल्टी न
आने का इंजेक्शन दिया। सुलाने की दवा दी। बी.पी. चैक किया। धड़कन चैक की।
सब कुछ नार्मल था।
इंजेक्शन के बाद तो
सुमित ने थोड़ा बहुत खा लिया।
मगर उसकी हालत पहले
से ज्यादा बिगड़ती गयी।
रात में तो उसे नींद
ही नहीं आ रही थी।
जाने कैसी घबराहट थी
कि जान खींचे ले रही थी। दिमाग में चक्कर उठ रहे थे।
ऐसा लग रहा था जैसे
सांस नहीं आ पा रही है। नसों में तनाव महसूस हो रहा था। नकारात्मकता, निराशा, हताशा बढ़ती जा रही थी।
अंततः सुमित के
परिजन कई लोगों के मशवरे पर उसे तान्त्रिक के पास ले गये।
बड़े नाम वाला
तान्त्रिक था।
वहां का वातावरण
देखकर तो परिजनों की आत्मा कांप उठी।
वातावरण में
चीख-पुकार की आवाजें गूंज रही थीं।
वशीकरण के तथाकथित
रोगियों की वहां भरमार थी। कितने ही रोगी लोहे की जंजीर से बांधकर रखे गये थे, जो मोटे-मोटे थम्ब से बंधे थे।
वे जिस अवस्था में
भी थे, मुंह से अजीब-सी आवाजें निकाल रहे थे। कोई लेटे-लेटे आसमान को देखते हुए हू-हा
कर रहा था, तो कोई उकडू बैठा किसी चिड़िया की आवाज निकाल रहा था।
कुछ पर मुकदमे चल
रहे थे, पेशियां पड़ रही थीं। तान्त्रिक हवा से बात करते हुए कहता था-‘‘बिजली का झटका दो इसे।’’
और रोगी यूं मचल
उठता, था जैसे वास्तव में उसे बिजली का झटका दिया जा रहा हो।
देखने वाले अचरज की
प्रतिमूर्ति बने देखते रह जाते थे। शायद तान्त्रिक के कब्जे में जिन्न थे, जो तान्त्रिक का हुक्म बजा रहे थे और रोगियों को प्रताड़ित कर रहे थे।
वहां का माहौल देखकर
सुमित पर अजीब-सा प्रभाव पड़ा। उस पर भी सुरूर छाने लगा।
झूमते हुए रोगियों
को देखकर उसका भी मन झूमने को हो उठा। शायद तभी कुछ चैन मिल जाये। शायद तभी कुछ
बेकली कम हो जाये। कुछ कष्ट का निवारण हो जाए।
वरना घुटन तो दम ही
निकाले दे रही है। इससे बेहतर है कि मौत आ जाये। इस तकलीफ से पीछा तो छूटे।
जब तान्त्रिक के
यहां सुमित का नम्बर आया तो तान्त्रिक ने बड़ी-बड़ी आंखों से सुमित को घूरकर देखा।
प्रत्युत्तर में
वातावरण के अनुरूप सुमित भी तान्त्रिक को घूरने लगा।
तान्त्रिक भयानक
स्वर में बोला-‘‘तू कब सवार हुआ इस पर....?’’
अभी सुमित यहां के
वातावरण का इतना अभ्यस्त नहीं था कि एक प्रेत के अंदाज में जवाब दे पाता। अतः चुप
रहा।
उसकी चुप्पी पर
तान्त्रिक पुनः गरजा-‘‘अच्छा मेरे कान में फुसफुसा रहा है, बोलेगा नहीं...एक कोड़ा मारो इसे.....।’’
तान्त्रिक की आवाज
ही इतनी कड़क थी कि सुमित को एकाएक झुरझुरी दौड़ गयी।
और न चाहते हुए भी
उसके मुंह से चीख खारिज हो गयी-‘‘मरऽऽऽ गया मम्मीऽऽऽ।’’
तान्त्रिक आगे भयानक
स्वर में कहता चला गया-‘‘तू छोड़ेगा इसे नहीं तो मार....मारकर तेरा भुर्ता बना दूंगा।’’
फिर उसने ऐसा नाटक
किया जैसे दूसरी तरफ की कुछ बात सुन रहा हो और बड़बड़ाया-‘‘अच्छा....एक महीने बाद छोड़ेगा।’’
तान्त्रिक ने इसी
तरह नाटकबाजी दिखाई और अंत में सुमित के परिजन को चार अगरबत्ती के पैकिट और एक
बोतल पढ़ा हुआ पानी देकर पांच सौ इक्यावन रुपये ठग लिए।
सुमित की समस्या कम
न हुई, बल्कि बढ़ती गयी। तान्त्रिक के यहां से लौटकर आने के बाद एक समस्या का इजाफा ये
हुआ कि जब उसे समस्या बढ़ती थी यानि घबराहट और सिर में दबाव बढ़ता था तो वो
बैठे-बैठे झूमने लगता था।
वह इस बात को बेहतर
तरीके से खुद भी नहीं जानता था कि उसके झूमने का मूल कारण ये था कि वह अपनी तकलीफ
को इस तरह भुलाने की कोशिश करता था। उसके दिमाग में तान्त्रिक स्थल का वातावरण
घूमता रहता था। किस तरह वहां रोगी बैठे-बैठे झूम रहे थे, कुछ पटकी खा रहे थे।
दिल की घबराहट और
पीड़ा ने सुमित को निचोड़कर रख दिया।
कुछ जनों के मश्वरे
पर सुमित के परिजन ने उसे मनोचिकित्सक के पास भी दिखाया।
मनोचिकित्सक ने कुछ
जांचें करायीं।
जांचें सब नार्मल थीं।
मनोचिकित्सक ने
सुमित को समझाया-‘‘आप चिंता के रोगी हैं,
खुद को कन्ट्रोल करो-आपको इस बात पर यकीन होना चाहिए कि भाग्य से ज्यादा और
समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता है आपका काम है मेहनत करना, आप मेहनत कीजिए, फल की इच्छा समय पर छोड़ दीजिए-अपने व्यवहार में तब्दीली लाइए-आप पर परिजनों का
प्रेशर रहता है कि आप अच्छा प्रदर्शन करें, लेकिन आप उतना कर नहीं पाते, इसलिए आप चिंता के रोगी बन गये-इसीलिए आपकी ये हालत हुई-आप खुद को कन्ट्रोल
करें-हम दवाई दे रहे हैं,
उसे नियमित खाएं-मन को शान्त रखें-संगीत प्रेमी हों तो संगीत में मन लगायें, पुस्तक प्रेमी हों तो अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ें, आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएंगे।
मनोचिकित्सक से दवाई
लेकर वे लोग घर चले आये। सुमित के दिमाग में मनोचिकित्सक की बातें नहीं घुसी।
आखिर पहले भी तो वही
था। उसी तरह जीवन यापन कर रहा था, तब उसे कोई समस्या क्यों नहीं हुई? चिंता को वह कैसे मेन्टेन करे? बहुत कोशिश के बाद भी चिंता मेन्टेन क्यों नहीं हो
रही?
सुमित को तान्त्रिक
की भूमिका ही उचित नजर आई। जरूर उस पर वशीकरण हुआ है।
उस बीच सुमित के मन
में अशोक को लेकर ये अजीब-सा वातावरण पैदा हुआ था कि उसे जहां भी अशोक की बुराई
करने का मौका मिलता था तो वह दिल खोलकर अशोक की बुराई करता था।
यानि उसके मन में
अशोक की बुराई का एक ढलान पैदा हो गया था। उसकी समझ की ये बारीक रेखा लुप्त हो गयी
थी कि अकारण किन्हीं लोगों के बीच किसी व्यक्ति की बुराई नहीं करनी चाहिए।
शनैः-शनैः सुमित
मनोरोग का गम्भीर रोगी बनता जा रहा था। कभी-कभी उसे इतनी मानसिक पीड़ा होती थी कि
वह चिल्लाने लगता था।
कुछ लोगों ने उसे
पागल की संज्ञा दे दी थी कि इसका दिमाग चल गया है। ये पागल हो गया।
पाठकों को बता दें
कि अब सुमित का इलाज यही है कि वह अपने आरोगियों को चिन्हित करे। यानि उसने
किस-किस व्यक्ति से अशोक की बुराई की है और कितनी बैठकों में की है?
और हर बैठक में
कौन-कौन लोग थे। एक-एक बैठक के क्रम पकड़कर उन लोगों से मिले और उनसे किसी भी चर्चा
के दौरान संजीवनी वाक्य कहे और आगे से अशोक की बुराई किसी से न करे।
अपने आरोगियों से
संजीवनी वाक्य कहकर कुछ देर अबोध श्रेणी में अशोक से भी किसी भी प्रकार की बात
करे।
यही उसके स्वस्थ
होने की विधि है।
वरना न तो दवा का उस
पर कोई असर होगा, क्योंकि दवा मात्र मानसिक कोशिकाओं को शिथिल करने के लिए होती है। कदाचित जो
पीड़ा हो रही है, दवा में असर तक उस पीड़ा की अनुभूति न हो।
और न वो तान्त्रिक
सुमित को कभी स्वस्थ कर सकता है, सुमित वहां पटकी खाते-खाते मर जाएगा।
सुमित पीड़ा से तंग
आकर एक दिन आत्महत्या कर लेगा।
मनोरोगी के मस्तिष्क
में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाती है, इसलिए मस्तिष्क का आयतन सिकुड़ता जाता है। कई मामलों में खून बनना बंद हो जाता
है और रोगी मर जाता है।
सुमित ने अगर वशीकरण
पर यकीन कर लिया तो उसे हर आहट में और हर भ्रम में प्रेत के दर्शन होंगे। वह अपनी
तो जिन्दगी दूभर करेगा ही,
परिजनों का भी जीना हराम करेगा। चीखते चिल्लाते-झूमते-खेलते उसकी मौत हो
जाएगी।
अनेकानेक मामलों में
ऐसा भी होता है कि रोगी यानि सुमित अपने अबोध मित्र अशोक की किन्हीं लोगों में
भरसक बुराई करने के बाद बीच-बीच में और अंत में भी संयोगवश संजीवनी वाक्य बोलता
रहता है। बुराई करने पर सुमित जहां मनोरोगों में घिरता है, वहीं संजीवनी वाक्य बोल देने से वह तत्काल मनोरोगों से बाहर निकल आता है।
बैठक में जब उसने
किन्हीं लोगों के बीच अबोध अशोक के खिलाफ भड़ास निकाली थी, संयोगवश बाद की किसी बैठक में वही सारे लोग पुनः मिल गये हों और उनकी चर्चा के
दौरान सुमित या बैठक के किसी भी सदस्य ने अगर संजीवनी वाक्य बोल दिया तो सुमित और
वे सारे मित्र मनोरोग से बाहर निकल आएंगे।
यहां बता दें कि
मनोरोग में सिर्फ सुमित ही नहीं घिरेगा, बल्कि जितनी बैठकों में जितने लोगों के बीच
अबोध-अशोक की बुराई हुई है,
वे सभी मनोरोगी बनेंगे।
कोई कम तो कोई अधिक।
कम वो जो अशोक की
पर्सनेल्टी से कम प्रभावित था और उतना अधिक वो जो जितना ज्यादा प्रभावित था। सुमित
चूंकि अशोक के व्यक्तित्व से मानसिक दबाव महसूस करता था, इसलिए वह भयानक मनोरोगी बनेगा।
यानि हम कह सकते हैं
कि बैठक का हर सदस्य उतना बड़ा मनोरोगी बनेगा जितना वह अशोक का विश्वास जीता हुआ
था।
लेकिन अछूता कोई
नहीं रहेगा।
जिसने बिलकुल भी
विश्वास नहीं जीता था, वो भी नगण्य रूप से मानसिक रोगी होगा।
कम मनोरोगी हल्के
सिरदर्द के मरीज रहते हैं। वे जीवन भर शिकायत करते रहते हैं कि मेरा सिर भारी-भारी
रहता है।
आशा है इस कहानी से
पाठक समझ गये होंगे कि कोई भी सामान्य व्यवहार वाला व्यक्ति अचानक मनोरोग का शिकार
कैसे हो जाता है।
लेकिन कई मामलों में
रोगी भीषण रोगी भी बनता है। मगर वह अपने अबोध को चिन्हित नहीं कर पाता। ऐसी ही एक
छोटी कहानी हम अगले चेप्टर में पेश कर रहे हैं।
कहानी-सरला
सरला के भाई बृजेश
की शादी हुई है। नई-नई बहू आशा घर में आई। सरला की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है।
कितनी रौनक हो गयी आशा भाभी के घर में आते ही। मानों उस घर की बगिया खिल उठी हो।
पाठकों को बता दें
कि आशा अबोध श्रेणी की है।
सरला आशा से बहुत
हिल-मिल गयी। खूब बातें करती है। सरला को अपनी भाभी का लहजा बड़ा प्यारा लगता है।
एकदम निश्छल। लेकिन कभी-कभी मन उदास भी हो जाता है, जब लगता है कि आशा जानबूझकर
सरला की उपेक्षा कर रही है।
कभी-कभी लगता है
जैसे आशा अपने घमण्ड में हो। उसे अपने पढ़े होने का घमंड हो, तो सरला और उसका परिवार भी तो कम पढ़ा-लिखा नहीं है।
कुछ दिनों बाद ही
सरला को ये अनुभूति होने लगी कि आशा ससुराल को कम और मायके को ज्यादा तवज्जो देती
है। मायके के लोगों को ससुराल के लोगों पर वरीयता देने की कोशिश करती रहती है।
और आशा के भीतर जो
बहुत बुरी बात है, वो यह है कि वह उसके भाई
बृजेश को भरती रहती
है। परिवार की तरफ नफरत का पाठ पढ़ाती रहती है, जिसका असर भी बृजेश के ऊपर दृष्टिगोचर होने लगा है।
ये कुछ बातें सरला
को नागवार गुजरने लगी और वह अपनी मम्मी, चाची, दीदी, दूसरे भाई से इसका जिक्र करने लगी। और सरला ही
क्यों, घर के बाकी सदस्य भी तो आशा के बारे में यही कहते हैं।
वाकई आशा बुरी है।
ज्यादा प्यार मिलने से उसके दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच गये हैं।
एक रात अचानक सरला
की तबियत बिगड़ गयी। वह रोने लगी। घर में सब सदस्य जमा हो गये। पूछा-क्या हुआ?
सरला बताने लगी- ‘‘मुझे डर लग रहा है, मेरा दिल बहुत घबरा रहा है-मैं पढ़ रही हूं तो मुझे कुछ भी याद नहीं हो रहा-कुछ
समझ में नहीं आ रहा कि क्या लिखा है?’’
घर के सदस्य परेशान
हो उठे। ये क्या हो गया सरला को?
दिनों-दिन उसकी
समस्या बढ़ती गयी। वह बैठे-बैठे रोने लगती थी। सांसें तेज-तेज लेने की कोशिश करती
थी। थोड़ी देर में चीखने-चिल्लाने लगती थी। घर और मुहल्ला इकट्ठा हो जाता था।
सरला को डॉक्टर के
पास भी लेकर गये, और तन्त्र-मन्त्र से भी कोई फायदा नहीं हो रहा था।
लेकिन एक दिन सरला
बिलकुल ठीक हो गयी। हुआ यूं था कि सरला को देखने सारे लोग जमा थे, जिनके बीच सरला ने आशा को लेकर प्रश्न चिन्ह लगाये थे।
वे सारे लोग सरला के
साथ जमा थे और उन्होंने संजीवनी वाक्य कहे।
सरला एकदम स्वस्थ हो
गयी, जैसे कोई बात ही न हो। अब न उसे डर लगता था, न दिल घबराता था और किताब को
याद करने में कोई समस्या न थी।
अब किताबें खूब समझ
में आने लगीं थीं। पहले की भांति।
परिवार के सदस्यों
ने उन उपायों का धन्यवाद दिया, जिन पर उन्हें विश्वास था। कदाचित डॉक्टर पर
विश्वास करने वालों ने इस लाभ के लिए दवाओं की भूमिका मानी और तन्त्र-मन्त्र में
विश्वास करने वालों ने इस लाभ में तन्त्र-मन्त्र को सराहा।
लेकिन तीन महीने बाद
सरला की पुनः वैसी ही स्थिति हो गयी। वह फिर रोने लगी और दिल पर घबराहट बताने लगी।
फिर उसे डर लगने
लगा।
फिर किताबों का कोई
लेख उसे समझ में नहीं आने लगा।
परिवार के सदस्य
पुनः सरला को डॉक्टर और तन्त्र-मन्त्र में लेकर भागे।
यहां बता दें कि
हमारी विधि अनुसार यदि सरला से प्रश्न किया जाएगा-‘‘वह व्यक्ति कौन है, जिसकी पर्सनैलिटी से आप बहुत प्रभावित हैं, आप उसके साथ मानसिक दबाव में हैं, आपकी उसके साथ गाढ़ी छनती रही है और फिर किन्हीं लोगों के बीच में आपने उसकी
बुराई की, उसकी पर्सनैलिटी पर प्रश्न चिन्ह लगाये या फिर किन्हीं लोगों ने आप से उसकी
बुराई की और आपने उस बुराई में अपनी सहमति दी?’’
जाहिर-सी बात है कि
सरला बहुत ध्यान देने के बाद भी आशा को चिन्हित नहीं कर पाएगी। वह अपने आस-पास ही
खोजती रहेगी और उसे ऐसा कोई शख्स नहीं मिलेगा तो वह इंकार करेगी और कहेगी कि ऐसा
तो कोई नहीं है जो मेरे बहुत करीब रहा हो, मैं उसके साथ मानसिक दबाव में रही होऊं और फिर
मैंने उसकी बुराई की हो या फिर सरला को कई दूसरे नाम याद आ सकते हैं, जो अबोध न होकर सामान्य या प्रौढ़ हों।
क्योंकि यहां
एक-दूसरे पर प्रश्न चिन्ह खड़े करना आम बात है। हम जब किसी के सामने होते हैं तो हम
ऐसी बातें करते हैं, मानो हम उससे बहुत प्यार करते हैं, उसे बहुत इज्जत देते हैं, वह हमारे लिए बहुत खास है। लेकिन पीठ फिरते ही उसकी बुराई का मौका नहीं चूकते।
ऐसे में यदि हम
जिसकी बुराई कर रहे हैं, वह अबोध है तो पक्के तौर पर हमें मनोरोगी बन जाना है।
अगर हमें मनोरोगी
बनने से कोई बचा सकता है तो वो संजीवनी वाक्य है। जो बातचीत के दौरान हम अक्सर
दोहरा देते हैं और मनोरोग से बाहर निकल आते हैं।
या फिर आज की वार्ता
में किन्हीं लोगों के बीच हम मनोरोग में घिरे और एक दिन, दो दिन या कुछ समय पश्चात पुनः उन्हीं लोगों के साथ या उसी व्यक्ति के साथ
बातचीत हो गयी और किसी भी चर्चा के दौरान हमने संजीवनी वाक्य कह दिया तो हम तत्काल
प्रभाव से मनोरोग से बाहर निकल आएंगे।
हमारी विधि के
प्रश्न का सरला इसलिए संतोषजनक जवाब नहीं दे सकती, कदाचित वह अबोध को चिन्हित
इसलिए नहीं कर सकती क्योंकि नई बहू घर में आती है तो वैसे ही रौनक की आपूर्ति हो
जाती है। हर नई बहू पारिवारिक सदस्यों को अच्छी लगती है। चाहे वह अबोध, सामान्य या प्रौढ़ किसी भी क्षेणी की क्यों न हो।
बहू अच्छी ही लगती
है, उसकी बातें अच्छी लगती हैं। उसके साथ स्वाभाविक मानसिक जुड़ाव होता है। इसलिए
ये स्पष्ट करना सरला के लिए बड़ा मुश्किल होगा कि वह किस शख्स से प्रभावित थी और
उसने किस शख्स की बुराई की?
यहां डॉक्टर को सरला
के आस-पास का पूरा माहौल समझना होगा। घर में यदि कोई नई शादी हुई हो, कोई बहू या जीजा आया है तो संभवतः उससे डॉक्टर को बात करनी होगी।
और डॉक्टर को उससे
एक ही प्रश्न करना होगा-‘‘क्या आपको प्रतिदिन कोई स्वप्न दिखता है या बहुत दिनों बाद कोई एकाध स्वप्न
दिखता है?’’
अबोध की बड़ी पहचान
यही है कि उसे कभी हफ्ता,
पन्द्रह दिन, महीने में एकाध स्वप्न दिखता है।
जबकि सामान्य को रोज
रात में सपने दिखते हैं, ऐसे ही प्रौढ़ को।
इस तरह सरला के अबोध
को पहचाना जा सकता है। अबोध चिन्हित होते ही आरोगियों को पहचान लिया जाएगा और फिर
विधिवत उपचार का काम शुरू हो जाएगा।
- समाप्त –
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